Book Title: Samyag Darshan Ki Vidhi
Author(s): Jayesh Mohanlal Sheth
Publisher: Shailendra Punamchand Shah

View full book text
Previous | Next

Page 206
________________ 200 सम्यग्दर्शन की विधि ३७ समयसार के अधिकारों का विहंगावलोकन अब हम विस्तार रुचि जीवों के लिये समयसार शास्त्र के सभी अधिकारों का विहंगावलोकन करेंगे: जिस में सर्व अधिकारों का मात्र सार ही बतलायेंगे, इसलिये विस्तार रुचि जीवों को उपरोक्त पूर्वरंग में विस्तार से बतलाये भाव अनुसार और सर्व अधिकारों के यहाँ बतलाये सार अनुसार उन सभी अधिकारों का अभ्यास करना, अन्यथा नहीं। स्वच्छन्दता से नहीं। स्वच्छन्दता ही अपने अभी तक के अनन्त संसार का कारण है कि जिसे अब फिर कभी भी पोषण नहीं करना, ऐसा हमारा सभी मुमुक्षु जीवों से निवेदन है। १. जीव-अजीव अधिकार :- यह अधिकार जीव को, अजीव रूप कर्म-नोकर्म और उनके लक्ष्य से होनेवाले अपने विभाव भावों से भेद ज्ञान कराने के लिये है अर्थात् वे सब भाव जैसे कि-रस, गन्ध, स्पर्श, शरीर, संस्थान, संहनन, राग, द्वेष, मोह, मिथ्यात्व, कर्म, पर्याप्ति, वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक, अध्यात्म स्थान, अनुभाग स्थान, मन-वचन-काया के योग, बन्ध स्थान, उदय स्थान, मार्गणा, स्थितिबन्ध स्थान, संक्लेश स्थान, विशुद्धि स्थान, जीवस्थान इत्यादि जीव को नहीं है, ऐसा कहा है। प्रश्न :- यहाँ प्रश्न होता है कि वे भाव जीव के क्यों नहीं है? उत्तर :- वे भाव दो प्रकार के हैं, एक तो पुद्गल रूप हैं और दसरे जीव के विशेष भाव रूप हैं; उनमें जो पुद्गल रूप हैं, वे तो जीव से प्रगट भिन्न ही हैं और जो जीव के विशेष भाव रूप हैं, उन भावों में 'मैंपन' करने योग्य न होने से अर्थात् उन सब भावों से भिन्न ऐसा 'शुद्धात्मा' वह सम्यग्दर्शन का विषय (दृष्टि का विषय) होने की अपेक्षा से, शुद्धात्मा रूप जीवराजा में वे भाव नहीं हैं, ऐसा कहा है। ऐसा सम्यग्दर्शन प्राप्त कराने के लिये कहा है, अन्यथा नहीं, एकान्त से नहीं; इसलिये जैसा है वैसा समझकर मात्र शुद्धात्मा जो कि इन सब भावों से भिन्न है, उसमें ही 'मैंपन' करने पर, स्वात्मानुभूतिपूर्वक सम्यग्दर्शन प्रगट हो सकता है और तत्पश्चात् ही ज्ञान मध्यस्थ होने से अर्थात् प्रमाण रूप होने से ही जीव को जैसा है वैसा जानता है और विवेक से आत्मस्थिरता रूप पुरुषार्थपूर्वक सभी कर्मों का क्षय करने के प्रति कार्यरत होता है यानि सभी कर्मों का क्षय करने को व्रत-तप-ध्यान रूप पुरुषार्थ आदरता है, यही मोक्षमार्ग है। यही विधि है मोक्ष प्राप्ति की। श्लोक ४३ :- 'इस प्रकार पूर्वोक्त भिन्न लक्षण के कारण जीव से अजीव भिन्न है, उसे

Loading...

Page Navigation
1 ... 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241