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समयसार के अनुसार सम्यग्दर्शन का विषय
श्लोक १३ :“इस प्रकार जो पूर्व कथित शुद्ध नय स्वरूप आत्मा की अनुभूति है (अर्थात् शुद्धात्मा की अनुभूति है) वही वास्तव में ज्ञान की अनुभूति है, ऐसा जानकर (अर्थात् जो आत्मा की अनुभूति है, वही ज्ञान की अनुभूति है, उन दोनों में कुछ भी भेद नहीं है) तथा आत्मा में, आत्मा को निश्चल स्थापित कर (अर्थात् उस शुद्धात्मा का निश्चल - एकाग्र रूप से ध्यान करके) ‘सदा सर्व ओर एक ज्ञान घन आत्मा है' ऐसा देखना ।" अर्थात् जो शुद्धात्मा है उसे ज्ञान अपेक्षा से ज्ञान घन, ज्ञान मात्र, ज्ञान सामान्य इत्यादि अनेक नामों से पहचाना जाता है, यहाँ विशेष इतना ही है कि जिस गुण से शुद्धात्मा को देखने में आता है, उस गुणमय ही पूर्ण रूप से शुद्धात्मा ज्ञात होती है अर्थात् शुद्धात्मा में कोई भेद ही नहीं है ।
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गाथा १५ : गाथार्थ :- 'जो पुरुष आत्मा को अबद्धस्पृष्ट (अर्थात् किसी भी प्रकार के बन्ध रहित शुद्ध और जिसमें सर्व विभाव भाव अत्यन्त गौण हो गये होने से, विभाव भाव से नहीं स्पर्शित ऐसा कि जिसे सम्यक् एकान्त रूप भी कहा जाता है ऐसा), अनन्य (वह स्वयं निरन्तर अपने रूप में ही परिणमता होने से अन्य रूप नहीं होता अर्थात् उसके सभी गुणों का सहज परिणमनयुक्त परम पारिणामिक भाव रूप), अविशेष (अर्थात् सर्व विशेष जिसमें गौण हो गये होने से, मात्र सामान्य रूप अर्थात् जो औदयिक आदि चार भाव हैं, वे विशेष हैं परन्तु यह परम पारिणामिक भाव रूप पंचम भाव सामान्य भाव रूप होने से विशेष रहित होता है। जैसे हमने पूर्व में देखा वैसे। वे विशेष भाव सामान्य के ही बने हुए होते हैं अर्थात् जीव एक पारिणामिक भाव रूप ही होता है, परन्तु विशेष में जो कर्म के उदय निमित्त से भाव होते हैं, उस अपेक्षा से वह पारिणामिक भाव ही औदयिक इत्यादि नाम पाता है और उन औदयिकादि भावों का सामान्य अर्थात् परम पारिणामिक भाव में अभाव होने से उसे अविशेष) देखता है वह सर्व जिन शासन को देखता है (अर्थात् जिसने एक आत्मा जाना, उसने सब जाना) - कि जो जिन शासन बाह्य द्रव्य श्रुत तथा अभ्यन्तर ज्ञान रूप भाव श्रुतवाला है।'
गाथा १७-१८ : गाथार्थ : :‘जैसे कोई धन का अर्थी पुरुष (उसी प्रकार कोई आत्मा का अर्थी पुरुष) राजा को जानकर श्रद्धा करता है (अर्थात् जीव राजा रूप शुद्धात्मा को जानकर श्रद्धा करता है), तत्पश्चात् उसका प्रयत्नपूर्वक अनुचरण करता है (अर्थात् उस शुद्धात्मा का प्रयत्नपूर्वक अनुभव करने का पुरुषार्थ करता है) अर्थात् सुन्दर रीति से सेवा करता है (अर्थात् उसी का बारम्बार मनन-चिन्तन-ध्यान-अनुभवन करता है), इसी प्रकार मोक्ष की इच्छावाले को जीव रूपी राजा को जानना, पश्चात् उसी प्रकार उसका श्रद्धान करना और तत्पश्चात् उसका अनुसरण करना अर्थात् अनुभव द्वारा तन्मय हो जाना।'