Book Title: Samyag Darshan Ki Vidhi
Author(s): Jayesh Mohanlal Sheth
Publisher: Shailendra Punamchand Shah

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Page 220
________________ 214 सम्यग्दर्शन की विधि द्रव्य ही है, वहाँ पर्याय अत्यन्त गौण होने से ज्ञात ही नहीं होती; यही विधि है शुद्ध द्रव्य की प्राप्ति की। गाथा ३०९ : गाथार्थ :- ‘जीव और अजीव के जो परिणाम सूत्र में बताये हैं, उन परिणामों से उस जीव अथवा अजीव को अनन्य जानो।' यही कारण है कि दृष्टि का विषय जो कि पर्याय से रहित द्रव्य कहलाता है, उसे प्राप्त करने की विधि गाथा २९४ में प्रज्ञा रूप छैनी = भगवती प्रज्ञा = ज्ञान स्वरूप बुद्धि = तत्त्व के निर्णय सहित की बुद्धि कही है। इस कारण से विभाव रूप भाव को गौण करते ही शुद्ध नय रूप = समयसार रूप आत्मा प्राप्त होती है। ___ गाथा ३१८ : गाथार्थ :- “निर्वेद प्राप्त (वैराग्य को प्राप्त) ज्ञानी मधुर-कड़वे (सुख-दुःख रूप) बहुविध कर्मफल को जानता है इसलिये वह अवेदक है।' यानि उसे कर्म-नोकर्म और उसके आश्रय से होनेवाले भावों में मैंपन' नहीं होने से यानि उन भावों से अपने को भिन्न अनुभव करता होने से उन विशेष भावों को यानि सुख-दुःख को जानता है, तथापि अवेदक है। श्लोक २०५ :- ‘इस अरिहन्त मत के अनुयायियों अर्थात् जैनों (भी आत्मा) को, सांख्य मतियों की भाँति (सर्वथा) अकर्ता न मानो; भेद ज्ञान होने से पहले उसे (यानि मिथ्या दृष्टि को) निरन्तर कर्ता मानो, और भेद ज्ञान होने के बाद (यानि सम्यग्दृष्टि को) उद्यत ज्ञान धाम में निश्चित ऐसे (यानि मात्र सामान्य ज्ञान में स्थित ऐसे) इस स्वयं प्रत्यक्ष आत्मा को कर्तापना रहित, अचल, एक परम ज्ञाता ही देखो।' यानि ज्ञान सामान्य रूप शुद्धात्मा मात्र ज्ञाता ही है, वह सामान्य भाव परम अकर्ता है परन्तु जिसे उस भाव का अनुभव नहीं, ऐसा अज्ञानी यदि अपने को अकर्ता माने तो वह एकान्त पाखण्ड मत रूप सांख्यमती जैसा होता है जो कि अनन्त संसार का कारण होता है। गाथा ३५६ : गाथार्थ :- ‘जैसे खड़िया पर की नहीं है, खड़िया तो खड़िया की ही है, वैसे ज्ञायक (जाननेवाली आत्मा) पर की नहीं है (ज्ञायक यानि जाननेवाली होने पर भी, स्वपर को जानने का स्वभाव होने पर भी वह पर रूप से परिणम कर जानती नहीं होने से वह पर की नहीं है, परन्तु स्व-पर को जानना वह तो 'स्व' का ही परिणमन है) ज्ञायक (स्व-पर जो जाननेवाला) वह तो ज्ञायक ही है (प्रतिबिम्ब को गौण करने पर मात्र परम पारिणामिक भाव रूप ज्ञायक ही है)।' श्लोक २१५ :- “जिसने शुद्ध द्रव्य के निरूपण में बुद्धि को स्थापित किया है - लगाया है और जो तत्त्व को अनुभव करता है (यानि जो सम्यग्दृष्टि है) उस पुरुष को एक द्रव्य के भीतर

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