Book Title: Samyag Darshan Ki Vidhi
Author(s): Jayesh Mohanlal Sheth
Publisher: Shailendra Punamchand Shah

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Page 228
________________ 222 सम्यग्दर्शन की विधि रूप भाव को = कारण शुद्ध पर्याय को) जानता-आस्वादता हुआ (आत्मा के अद्वितीय स्वाद के अनुभव से बाहर नहीं आता हुआ = यानि वहाँ कुछ भी स्व-पर नहीं, वहाँ द्रव्य-पर्याय ऐसा कुछ भी भेद नहीं, क्योंकि वर्तमान पर्याय में ही पूर्ण द्रव्य अन्तर्गत है = समाहित है) यह आत्मा ज्ञान के विशेषों के उदय को गौण करता हुआ (यहाँ समझना यह है कि विशेषों का निषेध नहीं, उन्हें मात्र गौण किया है। यही विधि है अनुभव की) सामान्य मात्र ज्ञान को अभ्यासता हुआ, सकल ज्ञान को एकपने में लाता है - एक रूप से प्राप्त करता है। ' श्लोक २७५ : - 'सहज (अपने 'स्व' भाव रूप) (स्व के सहज भवन रूप = स्व का सहज परिणमन = परम पारिणामिक भाव = कारण शुद्ध पर्याय) तेज पुंज में (ज्ञान मात्र में ) तीन लोक के पदार्थ मग्न होते होने से (ज्ञान मात्र ऐसे आत्मा का स्वभाव ही स्व-पर को जानने का है, इसलिये सारे ज्ञेय ज्ञात होते हैं = जानता है) जिसमें अनेक भेद होते दिखते हैं (यानि ज्ञान मात्र भाव का ज्ञेय रूप से परिणमन दिखता है = होता है। तथापि उससे डरकर जो ज्ञान मात्र भाव का स्वभाव है, ज्ञेयों को जानने का, उसका निषेध किसी काल में हो सके ऐसा नहीं है) तो भी जिसका एक ही स्वरूप है (सामान्य भाव खण्ड-खण्ड नहीं होता, वह अभेद ही रहता है, इसलिये पर को जानने में डरने की कोई बात ही नहीं है). सभी मुमुक्षु जन इस समयसार रूप शुद्धात्मा में स्थित हों और अक्षय सुख की प्राप्ति करें, इसी भावना के साथ हमने इतना विस्तार से लिखा है । तथापि मेरी छद्मस्थ दशा के कारण, इस पुस्तक में कुछ भी भूल-चूक हुई हो तो आप सुधारकर पढ़ें और मेरे द्वारा जिनाज्ञा विरुद्ध कुछ भी लिखा गया हो तो मेरा त्रिविध-त्रिविध मिच्छामि दुक्कडं। उत्तम क्षमा!

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