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सम्यग्दर्शन की विधि
विद्या, मन्त्र, औषधि आदि भी मृत्यु सन्मुख जीव को अशरण ही हैं। अगर कोई साधना करके लौकिक सिद्धि पाकर यह समझे कि हमने तो लम्बी आयु को पा लिया है, लेकिन अपनी आयु की समाप्ति पर एक दिन उनको भी मरना ही है। लौकिक सिद्धि शरण रूप नहीं होती। जब शेर हिरण का शिकार करता है, तब उसके साथ अन्य कई हिरण होने के बावजूद भी उसे कोई बचा नहीं सकता अर्थात् तब उसे कोई शरण रूप नहीं होता; इसी तरह संसार में जब कोई जीव मरण प्राप्त करता है, तब उसे कोई शरण नहीं मिलती। ख़ुद इन्द्र - नरेन्द्र का भी मरण के सम्मुख होने पर, कोई शरण नहीं होता अर्थात् वे भी अशरण ही हैं।
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इस जगत में चार शरण उत्कृष्ट हैं - १. अरिहन्त भगवान, २. सिद्ध भगवान, ३. साधु और ४. केवली प्रणीत धर्म = सत्य धर्म; यह चारों शरण सब को अपनी शुद्धात्मा की शरण लेने के लिये ही प्रेरणा देते हैं। पंच परमेष्ठी भगवान, उनका दिया हुआ धर्म और शुद्धात्मा ही सभी जीवों के शरण रूप हैं अर्थात् मरण को सुधार सकते हैं और अजन्मा भी बना सकते हैं। अन्य कोई भी शरण नहीं है। हमें बुढ़ापे में कौन शरण देगा, इसकी भी चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि तब आपके पाप या पुण्य के अनुसार अपने आप व्यवस्था हो जायेगी। यही इस भावना का फल है।
व्यवहार से उपरोक्त चार शरणभूत हैं और निश्चय से एक मात्र शुद्धात्मा ही शरण है । क्योंकि व्यवहार से ज्ञानी उपरोक्त चार शरण का आदर और उनको नमस्कार भी करता है, जिस से वह एक मात्र प्रेरणा यही लेता है कि मुझे मेरी अपनी आत्मा ही परम शरण रूप है अर्थात् मुझे उसमें ही ठहर जाना है और संसार से मुक्ति पानी है।
अज्ञानी को आत्मानुभूति नहीं होने से उसे सम्यक् निश्चय नहीं होता इसलिये व्यवहार से उपरोक्त चार ही शरणभूत हैं। इसलिये जब तक आत्म प्राप्ति नहीं होती तब तक एकमात्र आत्म प्राप्ति के लक्ष्य से उपरोक्त चार शरण ग्रहण करने हैं और बाद में एकमात्र शुद्धात्मा में ठहरने का ही पुरुषार्थ करना है। यही इस भावना का फल है।
संसार भावना :- संसार अर्थात् संसरण - भटकन और उस में एक समय के सुख के सामने अनन्त काल का दुःख मिलता है; अतः ऐसा संसार किसे रुचेगा । अर्थात् नहीं ही रुचेगा और इसलिये एकमात्र लक्ष्य संसार से छूटने का ही रहना चाहिये।
संसार बढ़ने के कई कारण हैं, उनमें एकमात्र बड़ा कारण मिथ्यात्व है जिसके रहते हुए संसार का कभी अन्त नहीं हो सकता । मिथ्यात्व को टिकाने में मदद करनेवाले कई कारण हैं,