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नियमसार के अनुसार सम्यग्दर्शन और ध्यान का विषय
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इच्छुक हैं उनके लिये एकमात्र शुद्धात्मा का ही लक्ष्य और शुद्धात्मा का ही ध्यान श्रेष्ठ है क्योंकि उसी से ही मुक्ति मिलेगी।
श्लोक २११ :- 'यह अनघ (निर्दोष = शुद्ध) आत्म तत्त्व जयवन्त है - कि जिसने संसार को अस्त किया है (अर्थात् संसार के अस्त के लिये अर्थात् मुक्ति के लिये यह शुद्धात्मा ही शरण भूत - सेवने योग्य है), जो महामुनिगण के आदिनाथ के (गणधरों के) हृदयारविन्द में (मन में) स्थित है, जिसने भव का कारण त्याग दिया है (अर्थात् जो इस भाव में स्थिर हो जाता है, उसे अब फिर कोई भव रहता ही नहीं क्योंकि वह मुक्त ही हो जाता है), जो एकान्त से शुद्ध प्रगट हुआ है (अर्थात् जो सर्वथा शुद्ध रूप से स्पष्ट ज्ञात होता है अर्थात् जो तीनों काल शुद्ध ही होता है परन्तु सम्यग्दर्शन होने से, उस एकान्त से शुद्ध अर्थात् तीनों काल शुद्ध ही है, वह प्रगट हुआ, अनुभव में आया इसलिये प्रथम से वह शुद्ध ही होने पर भी उसका अनुभव न होने से, अनुभूति की अपेक्षा से वह प्रगट हुआ कहलाता है) और जो सदा (टंकोत्कीर्ण चैतन्य सामान्य रूप अर्थात् ज्ञेयों को गौण करते ही जो जाननेदेखनेवाला शेष रहता है, वह तीनों काल वैसा का वैसा ही ज्ञान सामान्य रूप होने से, टंकोत्कीर्ण कहलाता है; दूसरे प्रकार से ज्ञेय विशेष है और वह जिनका बना हुआ है अर्थात् ज्ञान का, उसे सामान्य ज्ञान अर्थात् चैतन्य सामान्य कहा जाता है, जो सदा) निज महिमा में लीन होने पर भी सम्यग्दृष्टियों को अनुभूति में आता है।'
श्लोक २१६:- 'यह स्वत: सिद्ध ज्ञान (अर्थात् ऊपर बतलाये अनुसार का परम पारिणामिक भाव रूप सामान्य ज्ञान) पाप-पुण्य रूपी वन को जलानेवाली अग्नि है (अर्थात् अपूर्व निर्जरा का कारण है) महा-मोहान्धकारनाशक (अर्थात् मोह का नाश करके अरिहन्त पद दिलानेवाला है) अति प्रबल तेजमय है। विमुक्ति का मूल है और निरूपाधि महा-आनन्द सुख का (अर्थात् अतीन्द्रिय शाश्वत् सुख का) दायक है। भव भय का ध्वंस करने में निपुण (अर्थात् मुक्ति दिलानेवाले) ऐसे इस ज्ञान को मैं नित्य पूजता हूँ।' अर्थात् उसे नित्य भाता हूँ और उसमें ही स्थिरता का पुरुषार्थ करता हूँ।
श्लोक २२० :- ‘जो भव भय के हरनेवाले इस सम्यक्त्व की, शुद्ध ज्ञान की और चारित्र की भव छेदक (अर्थात् यह सम्यग्दर्शन, शुद्ध ज्ञान अर्थात् सम्यग्ज्ञान और उसमें ही स्थिरता करने रूप चारित्र को भव भय का हरनेवाला कहा है अर्थात् मुक्तिदाता कहा है) अतुल भक्ति निरन्तर करता है, वह काम-क्रोधादि समस्त दुष्ट पाप समूह से मुक्त चित्तवाला जीव - श्रावक हो या संयमी हो निरन्तर भक्त है, भक्त है।' अर्थात् जैन सिद्धान्त अनुसार ऐसी अभेद भक्ति ही कार्यकारी है और इसलिये ऐसी ही भक्ति की इच्छा करना चाहिये।