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सम्यग्दर्शन की विधि
वस्तु स्वभाव प्रकाशमान है (सदा वस्तु का ऐसा ही स्वभाव है, किसी ने किया नहीं है)।'
वस्तु का ऐसा ही स्वभाव है कि ख़राब निमित्त से उसका पतन हो सकता है। ऐसा है अनेकान्तवाद जैन सिद्धान्त का। कोई निमित्त को एकान्त से अकर्ता माने और ऐसा ही प्ररूपण करे तो वह जिनमत बाह्य ही है। अर्थात् वह अपने और अन्य अनेकों के पतन का कारण है, यही बात इस श्लोक में भी बतायी गई है कि शुद्धात्मा स्वयं शुद्ध होने से, रागादि रूप अपने आप कभी नहीं परिणमता, परन्तु उसमें निमित्त पर संग ही है - ऐसा वस्तु स्वभाव प्रकाशमान है अर्थात् सदा वस्तु का ऐसा ही स्वभाव है, किसी ने किया नहीं है। निमित्त स्वयं उपादान रूप से परिणमता न होने पर भी वह कुछ संयोगों में उपादान पर असर करता है। उसे ही वस्तु स्वभाव कहा है, इसीलिये जैन सिद्धान्त को विवेक से ग्रहण किया जाता है और अपेक्षा से समझा जाता है; न कि एकान्त से जो कि महा अनर्थ का कारण है।
कोई एकान्त से ऐसा माने कि निमित्त तो परम अकर्ता ही है, और स्वच्छन्दता से चाहे जैसे निमित्तों का सेवन करे, तो उसे नियम से मिथ्यात्वी और अनन्त संसारी ही समझना क्योंकि उसे निमित्त का यथार्थ ज्ञान ही नहीं है। इसीलिये कहा है कि निश्चय से कार्य निमित्त से तो होता ही नहीं क्योंकि उपादान स्वयं ही कार्य रूप से परिणमता है। लेकिन कार्य निमित्त के बिना भी नहीं होता। जब कोई भी कार्य होता है तब उसके योग्य निमित्त की उपस्थिति अवश्य होती ही है - अविनाभाव रूप से होती ही है और इसीलिये मुमुक्षु जीव विवेक से हमेशा निर्बल निमित्तों से बचने का ही प्रयास करता है, क्योंकि वे उसके पतन का कारण बन सकते हैं और यही निमित्तउपादान की यथार्थसमझ है; निमित्त-उपादान पर विशेष प्रकाश आगे समयसार के निमित्त-उपादान के अधिकार में भी डालेंगे।