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सम्यग्दर्शन की विधि
श्लोक ३३७ : अन्वयार्थ :- ‘ठीक है, परन्तु निश्चय से ‘सर्वथा' इस पदपूर्वक सर्व कथन स्व-पर के घात के लिये हैं परन्तु स्यात् पद द्वारा युक्त सर्व पद स्व-पर के उपकार के लिये हैं।' अर्थात् स्याद्वाद के बिना किसी का भी उद्धार नहीं है, यह बात सभी को ज़रा भी भूलने योग्य नहीं है।
श्लोक ३३८ : अन्वयार्थ :- ‘अब इसका स्पष्टीकरण यह है कि जैसे सत् स्वत: सिद्ध है (नित्य है), उसी प्रकार वह परिणमनशील भी है। (उत्पाद-व्यय रूप = अनित्य भी है) इसलिये एक ही सत् दो स्वभाववाला होने से (यहाँ दो स्वभाव वाला बतलाया है-दो भाग वाला नहीं समझना) वह नित्य तथा अनित्य रूप है।' ऐसा नहीं कि एक भाग अपरिणामी और एक भाग परिणामी हो। अपेक्षा से ध्रुव को अपरिणामी कहा जाता है परन्तु वैसा माना नहीं जाता।
श्लोक ३३९-३४० : अन्वयार्थ :- “सारांश यह है कि जिस समय यहाँ केवल द्रव्य (ध्रुव = द्रव्य) दृष्टिगत होता है, परिणाम दृष्टिगत नहीं होते, उस समय वहाँ द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से वस्तुपने (द्रव्यत्व) का नाश नहीं होने से सम्पूर्ण वस्तु (यहाँ ध्यान में लेने योग्य बात यह है कि सम्पूर्ण वस्तु बतायी हुई है उसमें से कुछ भी निकालने में नहीं आया - सम्पूर्ण वस्तु अर्थात् प्रमाण का विषय) नित्य है (ध्रुव है)। अथवा जिस समय निश्चय से केवल परिणाम दृष्टिगत होते हैं, वस्तु (ध्रुव = द्रव्य) दृष्टिगत नहीं होती, उस समय पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से नवीन पर्याय की उत्पत्ति तथा पूर्व पर्याय का अभाव होने से सम्पूर्ण वस्तु ही अनित्य है (अर्थात् पर्याय रूप है)।'
इसलिये समझना यह है कि जो पर्यायार्थिक नय के विषय रूप पर्याय है, उसी में द्रव्य अन्तर्गत = गर्भित हो जाने से वह पर्याय, उस द्रव्य की ही बनी है, ऐसा कहा जा सकता है और वही द्रव्य अगर शुद्ध नय से शुद्ध देखने में आवे तो वही पंचम भाव अर्थात् परमपारिणामिक भाव है। इस कारण से किसी को प्रश्न हो कि समयसार गाथा १३ में बतलाया है कि 'नौ पदार्थ में (तत्त्व में) छिपी हुई आत्म ज्योति' वह क्या है ? तो उसका उत्तर यह है कि वह शुद्ध नय से परम पारिणामिक भाव ही है, यह बात हम आगे विस्तार से समझेंगे।
श्लोक ४११ : अन्वयार्थ :- “निश्चय से अभिन्न प्रदेश होने से कथंचित् सत् (ध्रुव = द्रव्य) और परिणाम में अद्वैतता है तथा दीपक और प्रकाश की भाँति संज्ञा-लक्षणादि द्वारा भेद होने से सत् और परिणाम में द्वैत भी है।' अर्थात् द्रव्य और पर्याय ये दोनों अभिन्न प्रदेशी होने से अभेद रूप हैं और लक्षण द्वारा भेद करने पर भेद रूप भी हैं, इसलिये कथंचित् भेद-अभेद रूप कहे जाते हैं।