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पंचाध्यायी पूर्वार्द्ध की वस्तु व्यवस्था दर्शाते श्लोक
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__भावार्थ :- ... जो निरन्तर अपनी उत्तरोत्तर होनेवाली पर्यायों में गमन करे, वह द्रव्य है (यानि द्रव्य, पर्यायों में ही छिपा हआ है)। गति ‘अन्वय' शब्द 'अनु' उपसर्गपूर्वक गत्यर्थक ‘अय' धातु से बना है, द्रव्य की यह व्युत्पत्ति अन्वय शब्द में भलीभाँति घटित हो सकती है। जैसे 'अनु'अव्युच्छिन्न प्रवाह रूप से जो अपनी प्रति समय होनेवाली पर्यायों में बराबर 'अयति' अर्थात् गमन करता हो, उसे अन्वय कहते हैं; इसलिये अन्वय और द्रव्य ये दोनों पर्यायवाचक शब्द हैं।' पर्यायों का जो प्रवाह रूप समूह है वही सत् है और वही द्रव्य है। यानि जो पर्यायें हैं, उनमें ही द्रव्य छिपा हुआ गति करता है मतलब जो पर्याय है वह द्रव्य की ही बनी हुई है और इसलिये ही पर्यायों को व्यतिरेक = विशेष = व्यक्त और द्रव्य को अन्वय रूप = सामान्य = अव्यक्त कहा जाता है।
श्लोक १५९ : अन्वयार्थ :- 'सारांश यह है कि निश्चय से गुण स्वयंसिद्ध है तथा परिणामी भी है, इसलिये वे नित्य और अनित्य रूप होने से भली प्रकार उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक भी है।'
भावार्थ :- ‘अनादि सन्तान रूप से जो द्रव्य के साथ अनुगमन करता है वह गुण है। यहाँ 'अनादि' इस विशेषण से स्वयंसिद्ध, ‘सन्तान रूप' इस विशेषण से परिणमनशील तथा अनुगतार्थ' इस विशेष से निरन्तर द्रव्य के साथ रहनेवाले, ऐसा अर्थ सिद्ध होता है। सारांश यह है कि प्रत्येक द्रव्य के गुण स्वयंसिद्ध और निरन्तर द्रव्य के साथ रहनेवाले हैं। इसलिये तो उन्हें नित्य अर्थात् ध्रौव्यात्मक कहा जाता है। और प्रतिसमय परिणमनशील हैं, इसलिये उन्हें अनित्य और उत्पादव्ययात्मक भी कहा जाता है। इस प्रकार सम्पूर्ण गुण उत्पाद-व्यय और ध्रौव्यात्मक है।' ऐसी ही जैन सिद्धान्त की वस्तु व्यवस्था है।
श्लोक १७८ : अन्वयार्थ :- 'सारांश यह है कि जिस प्रकार द्रव्य नियम से स्वत:सिद्ध है, उसी प्रकार वह परिणमनशील भी है, इसलिये वह द्रव्य प्रति समय बारम्बार प्रदीप (दीपक) की शिखा की भाँति परिणमन करता ही रहता है।'
भावार्थ :- 'जैसे द्रव्य, स्वत:सिद्ध होने से नित्य - अनादि-अनन्त है, उसी अनुसार वह परिणमनशील होने से प्रदीप शिखा की (दीपक की) भाँति प्रति समय परिणमन भी करता ही रहता है। इसलिये वह अनित्य भी है और उसका वह परिणमन पूर्व-पूर्व भाव के विनाशपूर्वक (मिट्टी के पिण्ड के विनाशपूर्वक) तथा उत्तर-उत्तर भाव के उत्पाद से (मिट्टी के घट के उत्पाद से) होता रहता है। इसलिये द्रव्य, कथंचित् नित्य-अनित्यात्मक कहने में आता है। (एक ही वस्तु के दो स्वभाव हैं, नहीं कि एक वस्तु के दो भाग-एक नित्य और दूसरा अनित्य-ऐसा भाग रूप मानने से मिथ्यात्व का दोष आता है) जैसे कि जीव मनुष्य से देव पर्याय को प्राप्त करने पर द्रव्यार्थिक