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सम्यग्दर्शन की विधि
गाथा ११ : गाथार्थ :- 'व्यवहार नय अभूतार्थ है (अर्थात् ऊपर बतलाये अनुसार भेद रूप व्यवहार अभूतार्थ है, क्योंकि जो भेद में ही रमता है, वह कभी भी सम्यग्दर्शन के विषय रूप अभेद द्रव्य का अनुभव कर ही नहीं सकता और दसरा, निश्चय से द्रव्य अभेद होने से जो भेद उपजाकर कहने में आता है, वैसे व्यवहार रूप - उपचार रूप भेद आदरणीय नहीं है अर्थात् 'मैंपन' करने योग्य नहीं है, इसलिये अभूतार्थ है) और शुद्ध नय भूतार्थ है (अर्थात् शुद्ध नय का विषय अभेद रूप 'शुद्धात्मा' है जो कि सम्यग्दर्शन का विषय होने से आदरणीय है - भूतार्थ है) ऐसा ऋषीश्वरों ने दर्शाया है, जो जीव भूतार्थ का (अर्थात् शुद्धात्मा का) आश्रय करता है, वह जीव निश्चय से सम्यग्दृष्टि है।' अर्थात् कोई भी जीव अभेद रूप शुद्धात्मा में ही 'मैंपन' करके और उसका ही अनुभव करके सम्यग्दृष्टि हो सकता है, अन्यथा नहीं। हमने जैसे पीछे समझाया है वैसे लोगों ने व्यवहार से द्रव्य के इतने भेद किये कि उनको लगने लगा कि द्रव्य और पर्याय भिन्नप्रदेशी हैं, द्रव्य अपरिणामी (कूठस्थ नित्य) और पर्याय परिणामी है, परम पारिणामिक भाव और कारण शुद्ध पर्याय अलग-अलग है, जीव को चतुर्थ गुणस्थानक में शुद्धात्मा का अनुभव नहीं होता, इत्यादि; यह सभी भ्रम निकालने के लिये अभेद ऐसा शुद्ध नय सम्यक् रूप से समझने की आवश्यकता है क्योंकि वही भूतार्थ है। इसलिये जब अभेद ऐसा शुद्ध नय सम्यक् रूप से समझ में आयेगा तब ही ऐसे मिथ्या आग्रह या भ्रम दूर होंगे अन्यथा नहीं, यही बात इस गाथा से समझनी है।
गाथा ११ : टीका :- ‘व्यवहार नय सब ही अभूतार्थ होने से (भेद रूप व्यवहार जो कि मात्र आत्मा के स्वरूप का ग्रहण कराने को हस्ताम्लवत् जानकर प्ररूपित किया है वह) अविद्यमान, असत्य, अभूत अर्थ को प्रगट करता है (अर्थात् जैसा अभेद आत्मा है, वैसा उससे अर्थात् व्यवहार रूप भेद से वर्णन नहीं किया जा सकता).... यह बात दृष्टान्त से बतलाते हैं - (दृष्टान्त में जीव को = आगमों में वर्णन किये अनुसार पाँच भाव सहित बताकर उसमें से उपादेय ऐसा जीव जो कि चार भावों को गौण करते ही पंचम भाव रूप = परम पारिणामिक भाव रूप = दृष्टि के विषय रूप प्रगट होता है जो कि ‘समयसार' जैसे आध्यात्मिक शास्त्र का प्राण है, उसे ग्रहण कराते हैं)। जैसे प्रबल कीचड़ के मिलने से (प्रबल उदय-क्षयोपशम भाव सहित) जिसका सहज एक निर्मल भाव (परम पारिणामिक भाव) आच्छादित हो गया है ऐसे जल का अनुभव करनेवाले (अज्ञानी) पुरुष - जल और कीचड़ का विवेक नहीं करनेवाले बहुत से तो, उसे (जल को = जीव को) मलिन ही अनुभव करते हैं (उदय, क्षयोपशम रूप ही अनुभव करते हैं), परन्तु कितने ही (ज्ञानी) अपने हाथ से डाली हुई फिटकरी (निर्मली औषधि = बुद्धि रूपी प्रज्ञा छैनी) के पड़ने मात्र से उत्पन्न जल-कीचड़ के विवेक से (अर्थात् कीचड़ जल में होने पर भी जल को स्वच्छ