Book Title: Samyag Darshan Ki Vidhi
Author(s): Jayesh Mohanlal Sheth
Publisher: Shailendra Punamchand Shah

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Page 226
________________ सम्यग्दर्शन की विधि अनेकान्तमय वस्तु स्थिति को देखते हैं, वे इस प्रकार स्याद्वाद की शुद्धि को प्राप्त करके - जान कर जिनदेव के मार्ग को - स्याद्वाद का उल्लंघन न करते हुए, ज्ञान स्वरूप होते हैं।' यानि सम्यग्दृष्टि होते है। 220 श्लोक २७० :“अनेक प्रकार की निज शक्तियों का समुदायमय यह आत्मा नयों की दृष्टि से खण्ड-खण्ड किये जाने पर तत्काल नाश को प्राप्त होता है (यदि किसी भी नय को एकान्त से ग्रहण किया जाये अथवा किसी भी नय की एकान्त प्ररूपणा की जाये अथवा किसी भी नय का एकान्त पक्ष किया जाये तो आत्मा खण्ड-खण्ड होने से तत्काल नाश को प्राप्त होती है। मिथ्यात्वी होती है और अनन्त संसार को बढ़ाती है) इसलिये मैं ऐसा अनुभव करता हूँ कि जिसमें से खण्डों को बहिष्कृत नहीं किया गया है (यानि कि वह खण्ड-खण्ड रूप ज्ञेय हो या विभाव पर्याय हो उसे आत्मा में से दूर नहीं करना) तथापि जो अखण्ड है, एक है, एकान्त शान्त है (यानि कि खण्ड-खण्ड विशेष भाव में अखण्ड सामान्य भाव रहा हुआ है, छिपा हुआ है, इसलिए खण्डखण्ड भाव का निषेध नहीं, उसे गौण करते ही अखण्ड भाव प्राप्त होता है)। (अर्थात् कर्म के उदय का लेश भी नहीं, ऐसे अत्यन्त शान्त भावमय है, परम पारिणामिक भावमय है) और अचल है (कर्म के उदय से चलाया चलता नहीं) ऐसा चैतन्य मात्र वही 'मैं हूँ।” ऐसी है सम्यग्दर्शन के विषय को प्राप्त करने की विधि । श्लोक २७१ : भावार्थ :- 'ज्ञान मात्र भाव (परम पारिणामिक भाव ) जानन क्रिया रूप होने से ज्ञान स्वरूप है (यहाँ समझना ऐसा है कि जो अज्ञानी हैं और जिन्हें आत्म प्राप्ति की तड़प भी है, उन्हें ज्ञान जो कि आत्मा का लक्षण है, जो कि स्व-पर को जानता है, उसका सीढ़ी रूप से उपयोग करके आत्मा के ज्ञान मात्र स्वरूप की प्राप्ति करना अर्थात् जो ज्ञेय को जानता है, वह जानने वाला, वही मैं हूँ - ऐसा चिन्तवन करना और उस जानन क्रिया के समय ही ज्ञेय को गौण करते ही ; निषेध करते नहीं - यह याद रखना; सामान्य ज्ञान रूप ज्ञान मात्र भाव की प्राप्ति होती है) और वह स्वयं ही निम्नानुसार ज्ञेय रूप है (ज्ञेय है वह ज्ञान ही है और ज्ञान है वह ज्ञायक ही है। तो पर को जानने का = ज्ञेय को जानने का निषेध करने से ज्ञान का निषेध होता है = ज्ञान मात्र भाव के अभाव का प्रसंग आता है) बाह्य ज्ञेय ज्ञान से भिन्न है, वे ज्ञान में प्रविष्ट नहीं होते; ज्ञेयों के आकार की झलक ज्ञान में आने पर ज्ञान ज्ञेयाकार रूप दिखायी देता है परन्तु वे ज्ञान की ही लहरें हैं। (जबकि ज्ञेय को जानने का निषेध करने से ज्ञान कल्लोलों का ही निषेध होता है जो कि स्वयं ज्ञान मात्र ही है। इसलिये ज्ञेय को जानने का निषेध करते ही ज्ञान मात्र भाव

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