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सम्यग्दर्शन के लिये योग्यता
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कर नहीं पाये, तब हमारा आध्यात्मिक पतन निश्चित ही है। क्योंकि अपने भाव स्थिर नहीं रहते, अगर वे उन्नत नहीं हुए, तब वे अवश्य अवनत हो जायेंगे। * जीव के अनन्त संसार में डूबने के प्रायः निम्नलिखित स्थान है :
विषय-कषाय, आरम्भ-परिग्रह, अहम्-मम् (मैं-मेरा), कर्तृत्वपना, निमित्ताधीनता, ईर्ष्या-निन्दा-दम्भ आदि, शरीर-धन-काम-भोग आदि, आर्त ध्यान-रौद्र ध्यान, प्राप्ति में आसक्ति-अप्राप्ति की कामना, तत्त्व का विपरीत निर्णय, इत्यादि। इसलिये इन सब से बचने का पुरुषार्थ करना अति आवश्यक है। * हमारे पास अनन्त काल तक रहने के दो ही स्थान हैं-निगोद या मोक्ष। इसलिये अपने पास दो ही विकल्प हैं - अगर हमने सिद्धत्व पाने के लिये सम्यग्दर्शन नहीं पाया तब नियम से दूसरा विकल्प यानी निगोद प्राप्त होगा। निगोद bydefault यानी बिना किसी यत्न के अपने-आप मिलता है मगर सिद्धत्व पाने के लिये पीछे बताये गये यत्न अर्थात् आत्मा
का पुरुषार्थ करना आवश्यक है; अब तय हम को करना है कि हमें क्या चाहिये। * इसलिये इस मनुष्य भव के हर-एक समय की क़ीमत अमूल्य है क्योंकि एक समय बीत
जाने के बाद वह हमें फिर से, कोई भी क़ीमत चुकाने पर भी, प्राप्त नहीं होता। अर्थात् हमें हर समय का उपयोग विवेकपूर्ण ढंग से करना है और एक भी समय व्यर्थ नहीं गँवाना है। * मैं, देह रूप नहीं मगर देह देवालय में विराजमान भगवान आत्मा हूँ। मैं ही पाँचों इन्द्रियों
के माध्यम से जानने-देखनेवाला एकमात्र ज्ञायक हैं। इसलिये जब तक मैं हाज़िर हँ तब तक ही ये इन्द्रियाँ जानती-देखती हैं, जैसे ही मैं इस शरीर से निकला (अर्थात् मरण हुआ) बाद में यही इन्द्रियाँ बेकार हो जाती हैं अर्थात् वे बिना आत्मा के कुछ भी जान-देख नहीं पातीं। वस्तुत: आत्मा ही सब कुछ जानता-देखता है न कि इन्द्रियाँ इसीलिये आत्मा
को ज्ञायक संज्ञा प्राप्त है अर्थात् ज्ञायक नाम प्राप्त है। * मैं (आत्मा) सत्-चित्-आनन्द स्वरूप हूँ। सत् यानी अस्तित्व, अर्थात् मेरा अस्तित्व त्रिकाल है। चित् यानी जानना-देखना, अर्थात् मेरा कार्य त्रिकाल जानने-देखने का है। आनन्द यानी अनन्त अव्याबाध अतीन्द्रिय सुख, अर्थात् मेरा स्वभाव त्रिकाल आनन्दमय है। इतने वैभववान होने के बावजूद भी कई जीव सुखाभास के पीछे पागल दिखते हैं, सुखाभास की भीख माँगते दिखते हैं। यह बड़ी करुणाजनक कहानी है।