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सम्यग्दर्शन की विधि
आ पहुँचेगा तब यत्न करने पर भी वह रुकेगा नहीं ऐसा तू निश्चय समझ। कब, कहाँ से और किस प्रकार वह काल अचानक आ चढ़ेगा, इसकी भी किसी को ख़बर नहीं है। वह दुष्ट यमराज, जीव को कुछ भी सूचना पहँचाये बिना अचानक हमला करता है, उसका कुछ तो ख़याल कर। काल की अप्रतिहत अरोक गति के समक्ष मन्त्र तन्त्र औषधादि सर्व साधन व्यर्थ हैं।' अर्थात् आत्म कल्याण के लिये ही सर्व पुरुषार्थ को आदर देना चाहिये।
आगे आत्मानुशासन गाथा १९६ में भी बतलाया है कि :- 'अहो! जगत के मूर्ख जीवों को क्या कठिन है ? वे जो अनर्थ करें, उसका आश्चर्य नहीं, परन्तु न करें वही वास्तव में आश्चर्य। शरीर को प्रतिदिन पोसते हैं, साथ ही साथ विषयों को भी वे सेवन करते हैं। उन मूर्ख जीवों को कुछ भी विवेक नहीं कि विषपान करके अमरत्व चाहते हैं! सुख चाहते हैं! अविवेकी जीवों को कुछ भी विवेक या पाप का भय नहीं है तथा विचार भी नहीं है....'
हम जब पाप-त्याग के विषय में बतलाते हैं, तब कोई ऐसा पूछता है कि रात्रि भोजन त्याग इत्यादि व्रत अथवा प्रतिमायें तो सम्यग्दर्शन के बाद ही होते हैं तो हमें उसके पूर्व रात्रि भोजन का क्या दोष लगेगा? तो उन्हें हमारा उत्तर होता है कि-रात्रि भोजन का दोष सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा मिथ्या दृष्टि को अधिक ही लगता है क्योंकि मिथ्या दृष्टि उसे रच-पचकर सेवन करता है जबकि सम्यग्दृष्टि को तो आवश्यक न हो, अनिवार्यता न हो तो ऐसे दोषों का सेवन ही नहीं करता
और यदि किसी काल में ऐसे दोषों का सेवन करता है तो भी भीरु भाव से और रोग की औषध के रूप में करता है, न कि आनन्द से अथवा स्वच्छन्दता से, क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव को तो भोजन करना पड़ता है वह भी मजबूरी रूप लगता है, रोग रूप लगता है और उससे शीघ्र छुटकारा ही चाहता है।
इसलिये किसी भी प्रकार का छल किसी को धर्म शास्त्रों से ग्रहण नहीं करना चाहिये, क्योंकि धर्म शास्त्रों में प्रत्येक बात अपेक्षा से कही होती है, इसलिये व्रत और प्रतिमायें पाँचवें गुणस्थान में कही हैं, उनका अर्थ ऐसा नहीं निकालना कि अन्य कोई निम्न भूमिकावाले उसे अभ्यास के लिये अथवा पाप से बचने के लिये ग्रहण नहीं कर सकते। बल्कि सबको अवश्य ग्रहण करने योग्य ही है, क्योंकि जिसे दःख प्रिय नहीं ऐसे जीव दःख के कारण रूप पाप किस प्रकार आचरण कर सकते हैं? अर्थात् आचरण कर ही नहीं सकते।
समझने की बात मात्र इतनी ही है कि सम्यग्दर्शन के पहले अणुव्रती अथवा तो महाव्रती, वह अपने को अनुक्रम से पाँचवें अथवा छठवें-सातवेंगुणस्थान में न समझकर (मानकर) मात्र आत्मार्थ