Book Title: Samyag Darshan Ki Vidhi
Author(s): Jayesh Mohanlal Sheth
Publisher: Shailendra Punamchand Shah

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Page 177
________________ नियमसार के अनुसार सम्यग्दर्शन और ध्यान का विषय क्योंकि भेद वह व्यवहार और अभेद वह निश्चय - ऐसी ही जिनागम की रीति है। दूसरा, अगर कोई दर्शन को मात्र स्व प्रकाशक मानता है तो उस बात का भी खण्डन किया है। 171 गाथा १७० : अन्वयार्थ :- 'ज्ञान जीव का स्वरूप है, इसीलिये आत्मा, आत्मा को जानता है, यदि ज्ञान आत्मा को न जाने तो आत्मा से व्यतिरिक्त (भिन्न) सिद्ध होगा ।' इस गाथा में भी अगर कोई ज्ञान को मात्र पर प्रकाशक मानता है तो उस बात का खण्डन किया है। गाथा १७१ : गाथा और अन्वयार्थ :- 'रे! (इसलिये ही) जीव है वह ज्ञान है और ज्ञान है वह जीव है, इस कारण से निज प्रकाशक ज्ञान तथा दृष्टि है - आत्मा को ज्ञान जान, और ज्ञान आत्मा है ऐसा जान; इसमें सन्देह नहीं इसलिये ज्ञान तथा दर्शन स्व- पर प्रकाशक हैं। ' ने अर्थात् जहाँ भी ज्ञान से कथन किया हो, वहाँ पूर्ण आत्मा ही समझना। तदुपरान्त कहीं किसी ज्ञान को साकार उपयोगवाला होने के कारण मात्र पर को जाननेवाला कहा है, और दर्शन को निराकार उपयोगवाला होने के कारण मात्र स्व को जाननेवाला कहा है, इस बात का उपरोक्त गाथाओं से निषेध किया है। गाथा १७२ : अन्वयार्थ :- 'जानते और देखते हुए भी (अर्थात् केवली भगवन्त स्व-पर को जानते-देखते हैं तो भी) केवली को इच्छापूर्वक (वर्तन) नहीं होता, इसलिये उन्हें 'केवल ज्ञानी' कहा है, और इसलिये अबन्धक कहा है' क्योंकि उन्हें पर में इष्ट-अनिष्ट बुद्धि नहीं है अर्थात् पर का जानना जीव को दोषकारक नहीं परन्तु पर में इष्ट-अनिष्ट बुद्धि ही नियम से दोषकारक अर्थात् बन्ध का कारण है। जो बात हमने पूर्व में भी बतलायी है। श्लोक २८७ :- ‘आत्मा को ज्ञान-दर्शन रूप जान और ज्ञान - दर्शन को आत्मा जान; स्व और पर ऐसे तत्त्व को (समस्त पदार्थों को) आत्मा स्पष्ट रूप से प्रकाशित करता है।' अर्थात् जहाँ भी ज्ञान से अथवा दर्शन से कथन हुआ हो, वहाँ उसे अपेक्षा से पूर्ण आत्मा ही समझना और उसे नियम से स्व-पर प्रकाशक समझना। श्लोक २९७ :- ‘भाव पाँच हैं, उनमें यह परम पंचम भाव (परमपारिणामिक भाव ) निरन्तर स्थायी है (अर्थात् तीनों काल वैसा का वैसा ही सहज परिणमन रूप - शुद्ध भाव रूप उपजता है, इस अपेक्षा से स्थायी कहा है), संसार के नाश का कारण है और सम्यग्दृष्टियों को गोचर (अर्थात् अनुभव में आता) है, बुद्धिमान पुरुष समस्त राग-द्वेष के समूह को छोड़कर (अर्थात् द्रव्य दृष्टि से समस्त विभाव

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