Book Title: Samyag Darshan Ki Vidhi
Author(s): Jayesh Mohanlal Sheth
Publisher: Shailendra Punamchand Shah

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Page 207
________________ समयसार के अधिकारों का विहंगावलोकन 201 (अजीव को) अपने आप ही विलसता - परिणमता ज्ञानी पुरुष अनुभव करते हैं, तो भी अज्ञानी को अमर्याद रूप फैला हुआ मोह (अनन्तानुबन्धी चतुष्टय रूप) क्यों नाचता है - यह हमें महा आश्चर्य और खेद है!' आचार्य भगवन्त को अज्ञानी पर परम करुणा भाव वर्तता है, उपजता है। श्लोक ४४:- ‘इस अनादि काल के महा अविवेक के नाटक में अथवा नाच में पुदगल ही नाचता है (परिणमता है), अन्य कोई नहीं (शुद्धात्मा नहीं) और यह जीव तो (अर्थात् शुद्धात्मा) रागादि पुद्गल विकारों से विलक्षण (भिन्न) शुद्ध चैतन्य धातुमय मूर्ति (अर्थात् ज्ञान घन) है।' अर्थात् ऐसा जीव ही अनुभव करने का है अर्थात् ऐसा जीव ही सम्यग्दर्शन का विषय है। श्लोक ४५ :- ‘इस प्रकार ज्ञान रूपी करवत का (अर्थात् तीक्ष्ण बुद्धि से भेद ज्ञान करने का) जो बारम्बार अभ्यास (अर्थात् बारम्बार भेद ज्ञान का अभ्यास करने योग्य है) उसे नचाकर (अर्थात् उससे भेद ज्ञान करके) जहाँ जीव और अजीव दोनों प्रगट रूप से भिन्न नहीं हुए (अर्थात् उस भेद ज्ञान रूपी करवत् से अर्थात् प्रज्ञा छैनी से जो अजीव रूप कर्म-नोकर्म और उनके लक्ष्य से हुए सब भावों से भिन्न स्वयं अर्थात् शुद्धात्मा प्रगट भिन्न है, ऐसा अनुभव होने से अर्थात् अपनी इन अजीव रूप कर्म-नोकर्म और उनके लक्ष्य से हुए सब भावों से प्रगट भिन्न अनुभूति होते ही) वहाँ तो ज्ञाता द्रव्य (अर्थात् जाननेवाला शुद्धात्मा) अत्यन्त विकास रूप होती अपनी प्रगट (अर्थात् प्रगट अनुभूति स्वरूप) चिन्मात्र शक्ति से विश्व को व्याप कर (अर्थात् कृतकृत्य होकर अद्वितीय आनन्द रूप परिणम कर और स्व विश्व को व्याप कर) अपने आप ही अति वेग से उग्रतासे अर्थात् अत्यधिक प्रकाशित हो उठी (अर्थात् ऐसा सहज सम्यग्दर्शन प्रगट हो गया कि जो स्वात्मानुभूति रूप सत्-चित्-आनन्द स्वरूप है)।' २. कर्ता-कर्म अधिकार :- जीव का दूसरा वेष कर्ता-कर्म रूप है। जीव अन्य का कर्ता होता है कि जिसे वह उपादान रूप से परिणमाने को शक्तिमान ही नहीं है यानि सभी द्रव्य अपने उपादान से ही अपनी परिणति करते हैं अर्थात् अपना कार्य करते हैं - परिणमते हैं, उसमें अन्य द्रव्य निमित्त मात्र ही होते हैं। दूसरे सम्यग्दर्शन के लिये जो मात्र अपने भाव हों, वे ही अर्थात् 'स्व' भाव हों उन में ही 'मैंपन' होने से और उस सम्यग्दर्शन के विषय रूप 'स्व'-भाव, मात्र सामान्य भाव रूप ही होने से वह निष्क्रिय भाव ही होता है अर्थात् सम्यग्दर्शन के विषय रूप 'स्व' भाव में उदय-क्षयोपशम रूप कर्ता-कर्म भाव जो कि विशेष भाव हैं, वे न होने से, निमित्त तथा उसके लक्ष्य से हुए विशेष भावों का उसमें निषेध ही होता है अर्थात् निमित्त का ही निषेध होता है, इस कारण से और इस

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