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सम्यग्दर्शन के लिये योग्यता
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नहीं हैं)। ज्ञानी तो एक शुद्ध ज्ञायक ही है।'' यानि शुद्ध निश्चय नय का विषय मात्र अभेद ऐसा शुद्धात्मा ही है। यही एकत्व भावना है।
गाथा ७ टीका :- ...क्योंकि अनन्त धर्मोंवाले एक धर्मी में (यानि भेद से समझकर अभेद रूप अनुभूति में) जो निष्णात नहीं है ऐसे निकटवर्ती शिष्य जन को, धर्मी को बतलानेवाले कितने ही धर्मों द्वारा (यानि भेदों द्वारा), उपदेश करते हुए आचार्य का-यद्यपि धर्म और धर्मी का स्वभाव से अभेद है तो भी नाम से भेद उत्पन्न करके (अभेद द्रव्य में द्रव्य-गुण-पर्याय ऐसे भेद उत्पन्न करके) व्यवहार मात्र से ही ऐसा उपदेश है कि ज्ञानी को दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है परन्तु परमार्थ से (यानि वास्तव में) देखने में आवे तो अनन्त पर्यायों को एक द्रव्य पी गया होने से जो एक है... (यानि जो द्रव्य तीनों काल में उन-उन पर्याय रूप परिणमता होने पर भी अपना द्रव्यपन नहीं छोड़ा है - जैसे कि मिट्टी घट पिण्ड रूप से परिणमने पर भी मिट्टीपन नहीं छोड़ती और प्रत्येक पर्याय में वह मिट्टीपन व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध से है इसलिये पर्याय अनन्त होने पर भी वह द्रव्य तो एक ही है)। ...एक शुद्ध ज्ञायक ही है।' ऐसी एकत्व भावना होने के बावजूद भी अनेक लोग द्रव्य-पर्याय को अलग करने के चक्कर में फंसकर अनन्त काल संसार में रुलने का मार्ग ही प्रशस्त कर रहे हैं; यह बात उनको समझ में नहीं आती, यह बात हमारे लिये सबसे अधिक दुःखद है।
जीव इस संसार में परिवार, सम्प्रदाय या समाज विशेष का पक्ष लेकर जब कुछ ग़लत करता है, तब उसका फल अकेले उसे ही भुगतना पड़ता है। वस्तु का धर्म एक ही होता है, वह बदलता नहीं। अर्थात् आत्मा के कल्याण का एक ही मार्ग होता है। और इस जगत के सभी जीवों के लिये नियम एक समान ही होते हैं। अलग-अलग सम्प्रदाय हमने बनाये हैं, वे समाज व्यवस्था के लिये तो ठीक हैं परन्तु उस मत-पन्थ-सम्प्रदाय का आग्रह अपनी आत्मा के कल्याण में बाधक नहीं बनना चाहिये।
ऐसी है एकत्व भावना जिसका विषय एक मात्र शुद्धात्मा ही है। लेकिन संसारी जीवों ने अनादि से शरीरादि परभावों में ही एकत्व किया है और दुःखों को आमन्त्रण दिया है। जब जीव इस भावना का मर्म समझकर एक मात्र शुद्धात्मा में ही अर्थात् स्वभाव से ही एकत्व करता है, तब उस जीव का संसार सीमित हो जाता है अर्थात् उस जीव का मोक्ष निकट होता है। अन्यत्व भावना :- मैं कौन हूँ? यह चिन्तवन करना अर्थात् पूर्व में बतलाये अनुसार पुद्गल और पुद्गल (कर्म) आश्रित भावों से अपने को भिन्न जानना और उसी में 'मैंपन' करना, उसका