Book Title: Samyag Darshan Ki Vidhi
Author(s): Jayesh Mohanlal Sheth
Publisher: Shailendra Punamchand Shah

View full book text
Previous | Next

Page 219
________________ समयसार के अधिकारों का विहंगावलोकन 213 कराने के लिये भेद ज्ञान कराने को, जो सम्यग्दर्शन का विषय (दृष्टि का विषय) है यानि जो शुद्धात्मा है, उसमें कोई विभाव भाव न होने से यानि उसमें सभी विभाव भावों का अभाव होने से, वह सर्व विशुद्ध है यानि वह अनादि-अनन्त विशुद्ध भाव है जो कि परम पारिणामिक भाव, आत्मा का सहज परिणमन, गुणों का सहज परिणमन, ज्ञान मात्र, सामान्य ज्ञान, सामान्य चेतना, सहज चेतना, कारण शुद्ध पर्याय, कारण समयसार, चैतन्य अनुविधायी परिणाम, कारण परमात्मा इत्यादि अनेक नामों से पहचाना जाता है, ऐसा इस अधिकार में बतलाया है। ऐसे सर्व विशुद्ध (अर्थात् त्रिकाल विशुद्ध) भाव में जीव को मैंपन' करा के, स्वात्मानुभूति करा के सम्यग्दर्शन प्राप्त कराना और इसी भाव में बारम्बार स्थिरता करने से वह जीव घाति कर्मों का नाश कर के केवल ज्ञान-केवल दर्शन प्राप्त करे और पश्चात् आयु क्षय से मोक्ष प्राप्त करे अर्थात् सिद्ध हो अर्थात् सर्व-अर्थ-सिद्ध करे ऐसा सिद्धत्व दिलाना, यही इस शास्त्र का उद्देश्य है और इसीलिये यह एक मात्र शुद्धात्मा को ही इस शास्त्र में आत्मा कहा है और उसी भाव का प्रतिपादन पूर्ण शास्त्र में किया है; वह भाव ही सर्व विशुद्ध ज्ञान है अर्थात् समयसार का सार है। श्लोक १९३ :- ‘समस्त कर्ता-भोक्ता आदि भावों का सम्यक् प्रकार से नाश करा के (शुद्ध द्रव्यार्थिक नय से गौण कर के अर्थात् आत्मा को द्रव्य दृष्टि से ग्रहण कर के) पद-पद पर (यानि जीव की प्रत्येक पर्याय में अर्थात् जो कि द्रव्य है, उसका वर्तमान भाव अर्थात् अवस्था ही पर्याय कहलाती है और उस पर्याय को द्रव्य दृष्टि से देखने से - ग्रहण करने से ही उसमें रही हुई विभाव भाव रूप अशुद्धि दृष्टि में आती ही न होने से उसका सम्यक् प्रकार से नाश हो पाता है यानि अत्यन्त गौण हो जाता है और उसमें छिपी हुई आत्म ज्योति यानि शुद्धात्मा अनुभव में आती है, वैसा भाव) बन्ध-मोक्ष की रचना से दूर वर्तता हआ (यानि त्रिकाल शुद्ध रूप भावसामान्य भाव) शुद्ध-शुद्ध (यानि जो रागादिक मल तथा आवरण-दोनों से रहित है ऐसा) जिस का पवित्र अचल तेज निज रस के (ज्ञान रस के, ज्ञान चेतना रूपी रस के) विस्तार से भरपूर है ऐसा और जिसकी महिमा टंकोत्कीर्ण (यानि वैसा का वैसा ही उपजता होने से) प्रगट है ऐसी यह ज्ञान पुंज आत्मा प्रगट होती है (यानि अनुभव में आती है)।' गाथा ३०८ : गाथार्थ :- ‘जो द्रव्य जिन गुणों से उत्पन्न होता है उन गुणों से उसे अनन्य जानो; जैसे जगत में कड़ा इत्यादि पर्यायों से सुवर्ण अनन्य है वैसे।' जो पर्याय है वह द्रव्य की ही बनी हुई है यानि पर्याय रूप विशेष भाव को गौण करते ही साक्षात् द्रव्य हाज़िर ही है। इसीलिये पर्याय दृष्टि में जो पर्याय है वही द्रव्य दृष्टि से मात्र

Loading...

Page Navigation
1 ... 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241