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स्वपर विषय का उपयोग करनेवाला भी आत्म ज्ञानी होता है
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इसलिये जीव पर को जानता है, ऐसा मानने से मिथ्यात्वी हो जाते हैं अथवा जीव पर को जानता है ऐसा मानने से सम्यग्दर्शन को बाधा आती है, सम्यग्दर्शन नहीं होता ऐसा कोई डर हो तो छोड़ देना और उल्टा ज्ञान (आत्मा) पर को जानता है ऐसा कहने-मानने में कुछ भी दिक्कत नहीं क्योंकि वही ज्ञान की पहचान है। अन्यथा तो वह ज्ञान ही नहीं है।
श्लोक ८७७ : अन्वयार्थ :- ‘रागादि भावों के साथ बन्ध की व्याप्ति है परन्तु ज्ञान के विकल्पों के साथ बन्ध की व्याप्ति नहीं (यानि आत्मा पर को जाने तो उससे कुछ बन्ध ही नहीं, मात्र वह = आत्मा उसमें राग-द्वेष करे, उससे ही बन्ध होता है, और इसलिये मात्र पर का जानना अथवा जानने में आना, उसमें बन्ध की व्याप्ति नहीं है।) अर्थात् ज्ञान विकल्पों के साथ इस बन्ध की अव्याप्ति ही है परन्तु रागादिकों के साथ जैसी बन्ध की व्याप्ति है, वैसी ज्ञान विकल्पों के साथ व्याप्ति नहीं।'
इसलिये आत्मा वास्तव में अपने ज्ञान में रचित आकारों को ही जानती है पर को नहीं जानती (आँख की पुतली की तरह) ऐसी ज्ञान की व्यवस्था होने पर भी, अर्थात् आत्मा पर सम्बन्धी के अपने ज्ञेयाकारों को ही जानती है और वैसा पर का जानना किसी भी प्रकार से सम्यग्दर्शन में बाधक नहीं है तथा वैसा पर का जानना किसी भी प्रकार से बन्ध का कारण नहीं है; अपितु वह अपेक्षा से स्व में जाने की सीढ़ी अवश्य है कि जो बात पूर्व में हमने विस्तार से समझायी है क्योंकि स्थूल से ही सूक्ष्म में जाया जाता है। प्रगट से ही अप्रगट में जाया जाता है। व्यक्त से ही अव्यक्त में जाया जाता है यही नियम है।