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सम्यग्दर्शन का स्वरूप
ज्ञान तो होता नहीं, इसलिये अपने को तो प्रथम कसौटी से अर्थात् पुद्गल से भेद ज्ञान और स्वानुभव रूप (आत्मानुभूति रूप) ही सम्यग्दर्शन समझना उचित है।
प्रश्न :
सम्यग्दर्शन के लिये क्या करना ज़रूरी है ?
उत्तर :- भगवान ने कहा है कि सर्व जीव स्वभाव से सिद्ध समान ही हैं तो यह बात समझना आवश्यक है। नियमसार में कहा है कि
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गाथा ४७ : अन्वयार्थ :- 'जैसे सिद्ध आत्मा हैं, वैसे ही भवलीन (संसारी) जीव हैं। संसारी जीव भी सिद्ध आत्माओं की भाँति जन्म-मरण से रहित और आठ गुणों से अलंकृत हो सकते हैं।' यह बात शुद्ध द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से है जो कि सम्यग्दर्शन का स्वरूप समझने के लिये उपयोगी है।
गाथा ४८ : अन्वयार्थ :- 'जैसे लोकाग्र में सिद्ध अशरीरी, अविनाशी, अतीन्द्रिय, निर्मल, और विशुद्धात्मा (विशुद्ध स्वरूपी) हैं, वैसे ही संसार में (सर्व) जीव को जानना । '
गाथा १५ : अन्वयार्थ :- 'मनुष्य, नारक, तिर्यंच और देव रूप पर्यायें, वे विभाव पर्यायें कही गयी हैं; वे कर्मोपाधि रहित पर्यायें स्वभाव पर्यायें कही जाती हैं। '
गाथा ४९ : अन्वयार्थ :- 'ये (पूर्वोक्त) सभी भाव वास्तव में व्यवहार नय के आश्रय से (संसारी जीवों में विद्यमान) कहे जाते हैं; शुद्ध नय से संसार में स्थित सर्व जीव सिद्ध स्वभावी हैं। '
श्लोक ७३ : श्लोकार्थ :- 'शुद्ध निश्चय नय से मुक्ति में तथा संसार में अन्तर नहीं है
ऐसा ही वास्तव में तत्त्व विचारने पर (परमार्थ वस्तु स्वरूप का विचार अथवा निरूपण करने पर) शुद्ध तत्त्व के ज्ञानी पुरुष कहते हैं । '
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गाथा ५०: अन्वयार्थ :- 'पूर्वोक्त सर्व भाव पर स्वभाव हैं, पर द्रव्य हैं, इसलिये हेय हैं; अन्तः तत्त्व ऐसा स्वद्रव्य - आत्मा ही उपादेय है।'
गाथा १०६ : अन्वयार्थ :- 'इस प्रकार जो सदा जीव और कर्म के भेद का अभ्यास करता है, वह संयत नियम से प्रत्याख्यान धारण करने में समर्थ है।'
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गाथा १० : अन्वयार्थ :- 'जीव उपयोगमय है। उपयोग ज्ञान और दर्शन है। ज्ञानोपयोग दो प्रकार का है; स्वभाव ज्ञान और विभाव ज्ञान ।'
योगसार : दोहा २१ : अन्वयार्थ :- 'जो जिन है, वह आत्मा है - यह सिद्धान्त का सार है। ऐसा तुम समझो। ऐसा समझकर हे योगियो ! अब मायाचार को छोड़ो।'
योगसार : दोहा २२ : अन्वयार्थ :- 'जो परमात्मा है, वही मैं हूँ और जो मैं हूँ, वही परमात्मा