Book Title: Samyag Darshan Ki Vidhi
Author(s): Jayesh Mohanlal Sheth
Publisher: Shailendra Punamchand Shah

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Page 122
________________ 116 सम्यग्दर्शन की विधि है और उत्तर में अगर सांसारिक इच्छा या आकांक्षा हो तो उसका बारह भावनाओं से निरासन/ नाश करना चाहिये ; ऐसी रीति है संसार के नाश की। ऐसे संसार में रहना किसे पसन्द होगा जहाँ एक समय के सुख (सुखाभास) के ख़िलाफ़ अनन्त समय निगोद में दु:ख सहते रहना होगा ? अर्थात् किसी को भी यह बात पसन्द नहीं आयेगी परन्तु इस बात की यथार्थ समझ न होने के कारण ही जीव अनादि से इसी तरह से अनन्तानन्त दुःख सहता आया है और अगर अभी भी समझ में नहीं आया तो इसी तरह से अनन्तानन्त काल तक अनन्तानन्त दुःख सहते रहना पड़ेगा; यह सोचकर अपने ऊपर और सब जीवों के प्रति अनन्तानन्त करुणा आनी चाहिये। इस तरह से अपने आप पर करुणा करके अर्थात् स्वदया करके जल्द से अपना आत्मकल्याण साध लेना चाहिये, यही इस भावना का फल है। एकत्व भावना :- अनादि से मैं अकेला ही भटकता आया हूँ, अकेला ही दुःख भोगता रहा हूँ; मरण के समय मेरे साथ कोई भी आनेवाला नहीं है, मेरा शरीर भी नहीं । अतः मुझे सम्भव हो उतना अपने में ही (आत्मा में ही) रहने का प्रयत्न करना चाहिये। हमें एकमात्र शुद्धात्मा से ही एकत्व करना है; यही बात समयसार में बतलायी गयी है। समयसार गाथा ३ : गाथार्थ :- “एकत्व निश्चय को प्राप्त जो समय है (यानि जिसने मात्र शुद्धात्मा में ही ‘मैंपन’ करके सम्यग्दर्शन प्राप्त किया है, वैसा आत्मा) इस लोक में सर्वत्र सुन्दर है (यानि वैसा जीव भले नरक में हो या स्वर्ग में हो यानि दुःख में हो या सुख में हो परन्तु वह सुन्दर यानि स्व में स्थित है) इसलिये एकत्व में दूसरे के साथ बन्ध की कथा (यानि बन्ध रूप विभावों में ‘मैंपन’ करते ही मिथ्यात्व का उदय होने से ) विसंवाद-विरोध करनेवाली (यानि संसार में अनन्त दुःख रूप फल देनेवाली) है।” और दूसरा, जो आत्म द्रव्य अन्य कर्म-नोकर्म रूप पुद्गल द्रव्य के साथ बन्ध कर रहा है, उसमें विसंवाद है अर्थात् दुःख है, जब वही आत्म द्रव्य उस पुद्गल द्रव्य के साथ के बन्धन से मुक्त होता है, तब वह सुन्दर है अर्थात् अव्याबाध सुखी है। आगे समयसार : गाथा ७ में कहा है कि :- "ज्ञानी को चारित्र, दर्शन, ज्ञान - ये तीन भाव व्यवहार से कहने में आते हैं (यानि ज्ञानी को एकमात्र अभेदभाव रूप 'शुद्धात्मा में' ही 'मैंपन ' होने से, जो भी विशेष भाव हैं और जो भी भेद रूप भाव हैं, वे व्यवहार कहे जाते हैं); निश्चय से ज्ञान भी नहीं, चारित्र भी नहीं, दर्शन भी नहीं (यानि निश्चय से कोई भेद शुद्धात्मा में नहीं, वह एक अभेद सामान्य भाव रूप होने से उसमें भेद रूप भाव और विशेष भाव, ये दोनों भाव

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