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नियमसार के अनुसार सम्यग्दर्शन और ध्यान का विषय
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अघ समूह का (दोष समूह का) नाशक है और मुक्ति का मूल (कारण) है उसे ही - अतिशय रूप से करना (अर्थात् सहज परम-आवश्यक वह कोई शारीरिक अथवा शाब्दिक क्रिया न होने से, मात्र मन की ही क्रिया है अर्थात् अतीन्द्रिय ध्यान रूप होने से अतिशय रूप से करने को कहा है)। (ऐसा करने से) सदा निज रस के फैलाव से पूर्ण भरपूर होने से (अर्थात् शुद्धात्मा में मात्र निज गुणों का सहज परिणमन ही ग्रहण होता है कि जो सम्पूर्ण होने के कारण) पवित्र और पुराण (सनातन – त्रिकाल) ऐसा वह आत्मा वाणी से दूर (वचन अगोचर) ऐसे किसी सहज शाश्वत सुख को (सिद्धों के सुख को) प्राप्त करता है।'
श्लोक २५७ :- ‘स्ववश मुनीन्द्र को (अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रयुक्त मुनीन्द्र को) उत्तम स्वात्म चिन्तन (निजात्मानुभवन) होता है, और वह (निज आत्मा के सुख का अनुभव रूप) आवश्यक कर्म उस के मुक्ति सुख का (सिद्धत्व का) कारण होता है।'
गाथा १५१ : अन्वयार्थ :- ‘जो धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान में परिणत है वह भी अन्तरात्मा है। ध्यान विहीन (अर्थात् इन दोनों ध्यान विहीन) श्रमण बहिरात्मा है, ऐसा जान।'
गाथा १५४ : अन्वयार्थ :- ‘यदि किया जा सके तो अहो! ध्यानमय (स्वात्मानुभूति रूप शुद्धात्मा के ध्यानमय) प्रतिक्रमणादि कर ; यदि तू शक्ति विहीन हो (अर्थात् यदि तुझे सम्यग्दर्शन हुआ न हो और इस कारण से शुद्धात्मानुभूति रूप ध्यान करने में शक्ति विहीन हो) तो वहाँ तक (अर्थात् जब तक सम्यग्दर्शन न हो तब तक) श्रद्धान ही (अर्थात् यहाँ बतलायी तत्त्व की उसी प्रकार से श्रद्धा) कर्तव्य (अर्थात् करने योग्य) है।'
__ श्लोक २६४ :- ‘असार संसार में, पाप से भरपूर कलिकाल का विलास होने पर, इस निर्दोष जिननाथ के मार्ग में मुक्ति नहीं है, इसलिये इस काल में अध्यात्म ध्यान कैसे हो सकता है? इसलिये निर्मल बुद्धिवाले भव भय का नाश करनेवाली ऐसी इस (ऊपर बतलाये अनुसार की) निजात्म श्रद्धा को अंगीकृत करते हैं।' अर्थात् इस काल में सम्यग्दर्शन अत्यन्त दुर्लभ होने से यहाँ बतलाये अनुसार अपनी आत्मा की श्रद्धा परम कर्तव्य है। वही कार्यकारी = सच्ची भक्ति है। इस पंचम काल में सत्य धर्म का महत् अंश से लोप हो जाने के कारण धर्म में कई प्रकार की विकृतियाँ आ गयी हैं, इसलिये सत्य समझने के लिये भी साधक को निर्मल बुद्धि होना आवश्यक है, अन्यथा वह प्राय: एकान्त मार्ग में ही श्रद्धा कर बैठेगा; इससे मुक्ति के बजाय अनन्त संसार मिलेगा, यह बात समझाई है।
गाथा १५६ : अन्वयार्थ :- ‘नाना प्रकार के जीव हैं। नाना प्रकार के कर्म हैं, नाना प्रकार