Book Title: Samyag Darshan Ki Vidhi
Author(s): Jayesh Mohanlal Sheth
Publisher: Shailendra Punamchand Shah

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Page 199
________________ समयसार के अनुसार सम्यग्दर्शन का विषय 193 हैं.... क्योंकि एक को ही (आत्मा को) अपने आप (स्वभाव से) पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष की उपपत्ति (सिद्धि - उस भाव रूप आत्मा का परिणमना) नहीं होती। वे दोनों जीव (भाव कर्म) और अजीव (द्रव्य कर्म) हैं (अर्थात् उन दोनों में एक जीव है और दूसरा अजीव है)। बाह्य (स्थूल) दृष्टि से देखा जाये तो - जीव-पुदगल के अनादि बन्ध पर्याय के समीप जाकर एकपन अनुभव करने पर ये नौ तत्त्व भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं (अर्थात् आगम में निरूपित पाँच भावयुक्त जीव में ये नव तत्त्व भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं) और एक जीव द्रव्य के स्वभाव ('स्व' का भाव = 'स्व' का सहज परिणमन रूप भाव = परम पारिणामिक भाव = कारण शुद्ध पर्याय = कारण शुद्ध परमात्म रूप भाव) के समीप जाकर अनुभव करने पर वे अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं। (समयसार जैसे अध्यात्म ग्रन्थ में निरूपित शुद्धात्म रूप जीव में वे अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं)। (जीव के एकाकार स्वरूप में वे नहीं हैं) इसलिये इन नौ तत्त्वों में भूतार्थ नय से एक जीव ही प्रकाशमान है...' यही गाथा का भाव श्लोक ८ में विशेष रूप से समझाया गया है। श्लोक ८ :- ‘इस प्रकार नौ तत्त्वों में बहुत काल से छिपी हई इस आत्म ज्योति को (अर्थात् आत्मा के उदय - क्षयोपशम रूप जो भाव हैं, वे सर्व जीवों को अनादि के होते हैं और जो जीव अज्ञानी है, वह उन्हीं भावों में रमता है तथापि प्रत्येक जीव में अनादि से परम पारिणामिक भाव रूप छिपी हई आत्म ज्योति मौजूद ही होती है, हाज़िर ही होती है। मात्र उदय-क्षयोपशम रूप भावों को गौण करके उसका लक्ष्य करते ही वह प्राप्त होती है अर्थात् इन नौ तत्त्वों को गौण करते ही जो सामान्य जीवत्व भाव शेष रहता है, वह तीनों काल शुद्ध होने से, कहा है कि नौ तत्त्वों में बहत काल से छिपी हई आत्म ज्योति को), जैसे वर्गों के समूह में छिपे हए एकाकार स्वर्ण को बाहर निकाले वैसे (अशुद्धात्मा में से अशुद्धि को गौण करते ही, उसमें छिपी हुई एकाकार = अभेद शुद्धात्मा साक्षात् होती है वैसे), शुद्ध नय से (अर्थात् ऊपर कहे अनुसार अशुद्ध भावों को गौण करते ही) बाहर निकालकर प्रगट की गयी है। इसलिये हे भव्य जीवो! हमेशा उसे अन्य द्रव्यों से (अर्थात् पदगल रूप कर्म-नोकर्म से) तथा उन से होनेवाले नैमित्तिक भावों से (अर्थात् औदयिक भावों से) भिन्न (अर्थात् हमने पूर्व में जो दो प्रकार से भेद ज्ञान करने का बतलाया था वैसे); एक रूप देखो। यह (ज्योति = परम पारिणामिक भाव), पद-पद पर अर्थात् पर्याय-पर्याय में एक रूप चिचमत्कार रूप उद्योतमान है। (अर्थात् प्रत्येक पर्याय में पूर्ण जीव व्यक्त होता ही होने से अर्थात् पर्याय में पूर्ण द्रव्य होने से ही ऐसा बतलाया है। अर्थात् पर्याय ही वर्तमान जीव द्रव्य है, ऐसा जो हमने पूर्व में बतलाया है, वही समझ यहाँ दृढ़ होती है)।'

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