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पंचाध्यायी पूर्वार्द्ध की वस्तु व्यवस्था दर्शाते श्लोक
परन्तु सत के नहीं होते। परन्तु चूँकि उत्पादादिक पर्यायें ही द्रव्य हैं इसलिये द्रव्य को उत्पादादिकत्रयवाला कहा जाता है।'
यहाँ अंश-अंशी रूप भेद नय की अपेक्षा से उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य इन तीनों को भेद रूप पर्याय सिद्ध किया है क्योंकि अंश-अंशी रूप भेद न किया जाये तो सत् का नाश-सत् का उत्पाद
और सत् का ही ध्रौव्य ऐसी विरुद्धता उद्भवित होती है इसलिये भेद नय से समझाया है कि सत् तो स्वत: सिद्ध होने पर उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप ही है और इसलिये भेद नय से ये तीनों उसकी पर्याय कही जाती हैं। प्रश्न उठता है कि उत्पाद का स्वरूप और उत्पाद किसका होता (कहा जाता) है ? उत्तर -
श्लोक २०१: अन्वयार्थ :- “तभाव ('यह वही है') और अतद् भाव ('यह वह नहीं') को विषय करनेवाले नय की अपेक्षा से (अर्थात् द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से) सत् सद्भाव और असद्भाव से युक्त है इसलिये वह उत्पादादिक में नवीन रूप से परिणमित उस सत् की अवस्था का नाम ही उत्पाद है।"
अर्थात् द्रव्य की अवस्था बदलती है उसे ही उत्पाद कहा और पूर्व अवस्था को व्यय। व्यय का स्वरूप और वह किसका होता है ? उत्तर -
श्लोक २०२ :- अन्वयार्थ :- ‘तथा व्यय भी सत् का नहीं होता परन्तु उस सत् की अवस्था का नाश व्यय कहलाता है, तथा प्रध्वंसाभाव रूप वह व्यय सत्, परिणामी होने से सत् का भी अवश्य कहने में आया है।'
___अर्थात् अपेक्षा से कुछ भी कहा जा सकता है परन्तु समझना यह है कि उपादान रूप द्रव्य स्वयं ही कार्य रूप परिणमता है और उसे ही उसका उत्पाद कहा जाता है और पूर्व समयवर्ती कार्य को उसका व्यय कहा जाता है और उन दोनों कार्य रूप परिणमित जो उपादान रूप द्रव्य है, वही ध्रौव्य है। ध्रौव्य का स्वरूप और वह किसका होता है ? उत्तर -
श्लोक २०३ : अन्वयार्थ :- ‘पर्यायार्थिक नय से (भेद विवक्षा से) ध्रौव्य भी कथंचित् सत् का होता है। केवल सत् का नहीं इसके लिये उत्पाद-व्यय की भाँति वह ध्रौव्य भी सत् का एक अंश है, परन्तु सर्वदेश नहीं।' क्योंकि यदि वह सत् का (द्रव्य का) मानने में आवे तो द्रव्य कूटस्थ/अपरिणामी गिना जाये कि जो वह नहीं है।
श्लोक २०४ : अन्वयार्थ :- ‘अथवा तद् भाव से नाश न होना ऐसा जो ध्रौव्य का लक्षण