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सम्यग्दर्शन की विधि
* कोई भी मुझे दुःख देता है, उसके लिये दोष मेरे पूर्व कृत पाप कर्म का है अर्थात् मेरे पूर्व के दुष्कृत्य का ही दोष है। उस दुष्कृत्य के लिये मन में माफ़ी माँगना है।
* अन्य किसी को दोषी नहीं मानना है। वे मात्र निमित्त हैं।
* अन्यों को अपने पूर्व पाप कर्मों से छुड़ानेवाले समझकर उन्हें उपकारी मानना और मन में धन्यवाद देना है, जिससे उनके ऊपर गुस्सा नहीं आयेगा ।
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* अगर कोई अपने घर का कचरा साफ़ कर देता है, तब हम उसको उपकारी ज़रूर मानते हैं; उसी तरह जब कोई अपनी आत्मा का कचरा (कर्म) साफ़ कर देता है, तब उसे भी उपकारी मानना आवश्यक है।
* इस तरह “धन्यवाद! स्वागतम् ! (Thank you! Welcome!)" करके आत्मा का फ़ायदा करते रहना है। इससे वह जीव जहाँ भी होगा वहाँ उसको किसी के भी लिये शिकायत नहीं रहेगी।
* No ComplaintZone यानी मुझे कोई शिकायत नहीं रहेगी, क्योंकि वर्तमान में मेरे साथ जो भी हो रहा है, वह मेरे भूतकाल के कर्मों का ही फल है। इसलिये अगर मुझे किसी के सामने शिकायत करनी भी हो तो वह मैं ख़ुद ही हूँ, अन्य कोई नहीं। तब फिर मैं किस से और क्यों शिकायत करूँ ?
* लोक के सभी जीवों के प्रति अपने भावों को मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ्य इन चार वर्गों में ही बाँटना; अन्यथा वह मेरे लिये बन्धन का कारण बनेगा ।
* हमारी सबसे बड़ी कमज़ोरी यह है कि हम सदैव अन्यों को ही बदलकर अपने अनुकूल बनाने में लगे रहते हैं, जिसमें सफलता मिलना अत्यन्त कठिन है।
* अपने आप को बदलना, सबसे आसान होने पर भी उसके लिये हम कभी प्रयास तक नहीं करते। अपने आप को धर्म के अनुकूल बदलना, यह सम्यग्दर्शन की योग्यता प्राप्त करने के लिये अनिवार्य है।
* अनादि से हमने जगत के ऊपर अपना हुक्म चलाना चाहा है, जगत को अपने अनुकूल परिवर्तित करना चाहा है। सभी मेरे अनुसार चलें और मेरे कहे अनुसार बदलें, यही चाहा है। परन्तु हमने कभी अपने आप को भगवान के कहे अनुसार परिणमन कराना नहीं चाहा, बल्कि हम अनादि से अपनी मति अनुसार ही परिणमे हैं; यही हमारी स्वच्छन्दता है। * अनादि से हम प्रशंसा प्रेमी हैं। कोई अगर हमारी निन्दा करता है, तब हमें तक़लीफ़ होती