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समयसार के परिशिष्ट में से अनेकान्त का स्वरूप
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के अभाव का प्रसंग आता है, जिसका परिणाम एकमात्र भ्रम ही है)। वे ज्ञान की लहरें ही ज्ञान द्वारा जानी जाती हैं। (यहाँ यह समझना आवश्यक है कि गाथा-६ की टीका में बतलाये अनुसार ज्ञान की लहरें = ज्ञेयाकार और ज्ञान मात्र ये दोनों अभिन्न ही हैं - अनन्य ही हैं और उनका अर्थात् कर्ता-कर्म का अनन्यपना होने से ही वह ज्ञायक हैं।) इस प्रकार स्वयं ही स्वयं से जानने योग्य होने से (यानि ज्ञान की लहरें और ज्ञान अनन्य हैं, और यदि उनमें लहरों का निषेध किया जाये तो यानि पर ज्ञेय को जानने का निषेध किया जाये तो वह निषेध ज्ञायक का ही समझना। क्योंकि कर्ता-कर्म का अनन्यपना होने से ज्ञेयाकार ज्ञायक ही है) ज्ञान मात्र भाव (परमपारिणामिक भाव) ही ज्ञेय रूप है (यहाँ यदि ज्ञेयों को जानने का निषेध किया जाये तो ज्ञान मात्र भाव का/समयसार रूप भाव का ही निषेध होने से उन्हें आत्मा की प्राप्ति नहीं होती) और स्वयं ही (ज्ञान मात्र भाव) अपना (ज्ञेय रूप भाव = ज्ञान लहरों का) जाननेवाला होने से ज्ञान मात्र भाव ही ज्ञाता है = ज्ञायक है (यानि जो ज्ञेय को जानता है, वह ही मैं हूँ = वहाँ ज्ञेयों को गौण करते ही मैं प्रगट होता है नहीं कि ज्ञेयों को जानने का निषेध करने से)। इस प्रकार ज्ञान मात्र भाव, ज्ञान, ज्ञेय, ज्ञाता इन तीनों भावों युक्त सामान्य विशेष स्वरूप वस्तु है। (सामान्य विशेष में नियम ऐसा है कि विशेष को निकालने पर सामान्य ही निकल जाता है क्योंकि वह विशेष, सामान्य का ही बना हुआ होने से, विशेष को गौण करते ही सामान्य हाज़िर होता है ऐसा समझना। इसलिये ज्ञान, ज्ञेय, ज्ञाता में से किसी भी एक का निषेध, वह तीनों का यानि ज्ञायक का ही निषेध है, ऐसा समझना।) 'ऐसा ज्ञान मात्र भाव मैं हूँ' ऐसा अनुभव करनेवाला पुरुष अनुभव करता है (यानि यह जो जानता है, वह मैं हूँ, फिर वह जानना, स्व का हो या पर का परन्तु यहाँ यह समझना महत्त्व का है कि किसी भी प्रकार से यानि स्व का अथवा पर का, कोई भी जानपना निषेध करते ही आत्मा का - ज्ञायक का निषेध होने से वह जिनमत बाह्य ही है जो कि समयसार गाथा-२ की टीका में भी स्पष्ट बतलाया है)।'
___ यही बात श्लोक-१४० में भी बतलायी गयी है कि :- ‘एक ज्ञायक भाव से भरे हुए महास्वाद को लेता हुआ (इस प्रकार ज्ञान में ही एकाग्र होने पर दूसरा स्वाद नहीं आता इसलिये) द्वन्द्वमय स्वाद के लेने में असमर्थ (वहाँ स्व पर नहीं, मात्र मैं हूँ) (यानि वर्णादिक, रागादिक तथा क्षायोपशमिक ज्ञान के भेदों का स्वाद लेने में असमर्थ = इसलिये ऐसा कहा जा सकता है कि अनुभूति के काल में आत्मा पर को नहीं जानता) आत्मा के अनुभव के स्वाद के प्रभाव के अधीन होने से निज वस्तु वृत्ति को (आत्मा की शुद्ध परिणति को = परम पारिणामिक भाव को = समयसार