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सम्यग्दर्शन की विधि
ही रहते हैं और निर्विकल्प स्वरूप का अनुभव नहीं कर सकते। वे मात्र भ्रम में ही रहते हैं और अपने को सम्यग्दृष्टि समझकर अनन्त परावर्तन को आमन्त्रण देते हैं, जो करुणा उपजानेवाली बात है। श्लोक २४६ :'जैसे ईंधनयुक्त अग्नि वृद्धि को प्राप्त होती है (अर्थात् जब तक ईंधन है, तब तक अग्नि की वृद्धि होती है), उसी प्रकार जब तक जीवों को चिन्ता (विकल्प) है, तब तक संसार है।' अर्थात् निर्विकल्प स्वरूप 'शुद्धात्मा' ही उपादेय है।
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गाथा १४६ : अन्वयार्थ :- 'जो पर भाव का परित्याग कर (अर्थात् दृष्टि में अत्यन्त गौण करके) निर्मल स्वभाववाले आत्मा को ध्याता है, वह वास्तव में आत्म वश है (अर्थात् स्ववश है) और उसे (निश्चयपरम) आवश्यक कर्म ( जिनवर ) कहते हैं।' अर्थात् आत्म ध्यान वह परम आवश्यक है।
श्लोक २४९ :- ‘निर्वाण का कारण ऐसा जो जिनेन्द्र का मार्ग है, उसे इस प्रकार जान कर (अर्थात् जिनेन्द्र कथित निर्वाण का मार्ग यहाँ समझाये अनुसार ही है, अन्यथा नहीं, इसलिये उसे इस प्रकार जान कर) जो निर्वाण सम्पदा को प्राप्त करता है उसे मैं बारम्बार वन्दन करता हूँ।' श्लोक २५२ 'जिस ने निज रस के विस्तार रूपी बाढ़ द्वारा पापों को सभी ओर से धो डाला है (अर्थात् शुद्धात्मा में पाप रूप सर्व विभाव भाव अत्यन्त गौण होने से अर्थात् ज्ञात ही न होते होने से और उन में ‘मैंपन' भी न होने से ऐसा कहा है), जो सहज समता रस से पूर्ण भरा हुआ होने से पवित्र है (अर्थात् शुद्धात्मा सर्व गुणों के सहज परिणमन रूप परम पारिणामिक भाव रूप सहज समता रस से पूर्ण होता है), जो पुराण (अर्थात् शुद्धात्मा सनातन - त्रिकाल शुद्ध) है, जो स्ववश मन में सदा सुस्थित है (अर्थात् सम्यग्दर्शनयुक्त को वह भाव सदा लब्ध रूप से होता है) और जो शुद्ध सिद्ध है (अर्थात् शुद्धात्मा, सिद्ध भगवान समान शुद्ध है और इसी अपेक्षा से 'सर्व जीव स्वभाव से सिद्ध समान ही हैं' कहा जाता है) ऐसा सहज तेज राशि में मग्न जीव (अर्थात् स्वात्मानुभूतियुक्त जीव) जयवन्त हो।'
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गाथा १४७ : अन्वयार्थ :- 'यदि तू (निश्चय परम) आवश्यक को चाहता है तो तू आत्म स्वभावों में (अर्थात् शुद्धात्मा में) स्थिर भाव करता है, उससे जीव को सामायिक गुण सम्पूर्ण होता है।' अर्थात् जो जीव शुद्धात्मा में ही स्थिर भाव करता है, उसे ही कार्यकारी = सच्ची सामायिक कहा है और उसे ही अपूर्व निर्जरा होती है।
श्लोक २५६ :- ‘आत्मा को अवश्य मात्र सहज-परम- आवश्यक को एक को ही, कि जो