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सम्यग्दर्शन की विधि
भावार्थ में पण्डित जयचन्दजी बतलाते हैं कि :- ‘अगर कोई जीव जो कि अपरम भाव में स्थित है (अज्ञानी है) वह व्यवहार छोड़े (भेद रूप और व्यवहार धर्म रूप दोनों) और उसे साक्षात् शुद्धोपयोग की प्राप्ति तो हुई नहीं (अर्थात् निश्चय सम्यग्दर्शन प्रगट हआ नहीं) इसलिये उल्टा अशुभोपयोग में ही आकर, भ्रष्ट होकर चाहे जैसे स्वेच्छाचार रूप से (स्वच्छन्दता से) प्रवर्तते तो नरकादि गति तथा परम्परा से निगोद को प्राप्त होकर संसार में ही भ्रमण करता है।'
यहाँ समझना यह है कि आत्मा अज्ञान अवस्था में चौबीस घण्टे कर्म का बन्ध करती ही है इस कारण से करुणावन्त आचार्य भगवन्तों ने बतलाया है कि जब तक तत्त्व का निर्णय और अनुभव न हो तब तक उसी के लक्ष्य से (शुद्ध के ही एकमात्र लक्ष्य से) नियम से शुभ में ही रहने योग्य है, न कि अशुभ में, क्योंकि अशुभ से तो देव-शास्त्र-गुरु रूप संयोग मिलना भी कठिन हो जाता है। इस बात में जिसका विरोध हो, वह हमें क्षमा करे क्योंकि यह बात हम किसी भी पक्ष रहित – निष्पक्ष भाव से बतलाते हैं कि जो सर्व आचार्य भगवन्तों ने भी बतलायी है और जहाँ-जहाँ (जिस भी गाथाओं में) इन बातों का सर्वथा निषेध करना बतलाया है, वह एकमात्र शुद्ध भाव का लक्ष्य कराने को बतलाया है, न कि अशुभ में रमने के लिये। और मुनिराज को छठवें गुणस्थानक में इस बात का निषेध सातवें गुणस्थान रूप अभेद आत्मानुभूति में स्थित होकर आगे बढ़कर केवल ज्ञान और मोक्ष प्राप्त करने के लिये बतलाया है, न कि छठवें गुणस्थानक में सहज होनेवाले शुभ का निषेध करके नीचे गिराने को अर्थात् अविरति अथवा अज्ञानी होने को।
__इसलिये सभी मुमुक्षु जनों को यह बात यथार्थ 'जैसा है वैसा' समझना अत्यन्त आवश्यक है, अर्थात् समझना यह है कि अहोभाव केवल शुद्धता का ही होना चाहिये, शुभ का नहीं ही, परन्तु जब तक शुद्ध रूप नहीं परिणमता तब तक रहना तो नियम से शुभ में ही।
श्लोक ४ :- ‘निश्चय और व्यवहार-इन दो नयों को विषय के भेद से परस्पर विरोध है, उस विरोध को नाश करनेवाला ‘स्यात्' पद से चिह्नित जो जिन भगवान का वचन, (वाणी) उसमें जो पुरुष रमते हैं (प्रचुर प्रीति सहित अभ्यास करते हैं अर्थात् दोनों नयों का पक्ष छोड़कर मध्यस्थ रहते हैं) वे पुरुष अपने आप (अन्य कारण बिना) मिथ्यात्व कर्म के उदय का वमन करके इस अतिशय रूप परम ज्योति प्रकाशमान शुद्ध आत्मा को तुरन्त देखते ही हैं। (अर्थात् कौन देखते हैं? तो कहते हैं कि 'स्यात्' वचनों में रमता पुरुष, न कि एकान्त का आग्रही पुरुष अर्थात् सम्यग्दर्शन जो कि सम्यक् एकान्त रूप होने पर भी आग्रह तो एकान्त का होता ही नहीं, प्ररूपणा एकान्त की होती ही नहीं। प्ररूपणा जैसी है वैसी स्यात् वचन रूप ही होती है)। कैसी है समयसार रूप