Book Title: Samyag Darshan Ki Vidhi
Author(s): Jayesh Mohanlal Sheth
Publisher: Shailendra Punamchand Shah

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Page 240
________________ सम्यग्दर्शन की विधि एक-दो, थोड़े से भव अच्छे मिल भी जायें, लेकिन भवान्त नहीं होता। इस कारण अनन्त दुःखों का अन्त नहीं आता। अर्थात् नरक- निगोद से बचाव नहीं होता इसलिये ऐसे दुर्लभ सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिये और तैयारी रूप इस संसार के प्रति वैराग्य, संसार के सुखों के प्रति उदासीनता और शास्त्र स्वाध्याय से यथार्थ तत्त्व का निर्णय आवश्यक है। 234 यह मनुष्य भव अत्यन्त दुर्लभ है, इसलिये इसका उपयोग किसमें करना यह विचारना अत्यन्त आवश्यक है; क्योंकि जैसा जीवन जिया हो, प्राय: वैसा ही मरण होता है। इसलिये नित्य जागृति ज़रूरी है। जीवन में नीति- न्याय आवश्यक है। नित्य स्वाध्याय, मनन, चिन्तन आवश्यक है। आयुष्य का बन्ध चाहे जब पड़ सकता है और गति अनुसार ही मरण के समय लेश्या होती है। इसलिये जो समाधि मरण चाहते हों, उन्हें पूर्ण जीवन सम्यग्दर्शन सहित धर्ममय जीना आवश्यक है। जीवन भर तमाम प्रयत्न सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिये ही करने योग्य हैं। सम्यग्दर्शन के लिये किये गये तमाम शुभ भाव यथार्थ हैं, अन्यथा वे भवान्त के लिये अयथार्थ सिद्ध होते हैं। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के बाद भी प्रमाद सेवन करने योग्य नहीं है क्योंकि एक समय का भी प्रमाद नहीं करने की भगवान की आज्ञा है। सब को मात्र अपने ही परिणाम पर दृष्टि रखने योग्य है। और उस में ही सुधार करना चाहिये। ‘दूसरा क्या करता है ?' अथवा 'दूसरे क्या कहेंगे?' इत्यादि न विचारकर अपने लिये क्या योग्य है - यह विचारना । आर्त ध्यान और रौद्र ध्यान का सेवन नहीं करना । यदि भूल से, अनादि के संस्कारवश आर्त ध्यान और रौद्र ध्यान हुआ हो तो तुरन्त ही उसमें से पराङ्गमुख होना, (प्रतिक्रमण) ; उसका पश्चात्ताप करना (आलोचना) और भविष्य में ऐसा कभी न हो (प्रत्याख्यान)ऐसा दृढ़ निर्धारण करना। इस प्रकार दुर्ध्यान से बचकर, पूर्ण यत्न संसार के अन्त के कारणों में ही लगाना योग्य है। ऐसी जागृति सारे जीवन के लिये आवश्यक है । तब ही मरण के समय जागृति सहित समाधि और समत्व भाव रहने की सम्भावना रहती है। इसी से समाधि मरण हो सकेगा। आप सभी को ऐसा समाधिमरण प्राप्त हो - इसी भावना के साथ..... जिन-आज्ञा के विरुद्ध हमसे कुछ भी लिखा गया हो तो त्रिविध-त्रिविध हमारी ओर से मिच्छामि दुक्कडं ! उत्तम क्षमा ! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः

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