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समयसार के अनुसार सम्यग्दर्शन का विषय
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वहाँ दर्पण की भाँति स्वच्छत्व रूप परिणमन हाज़िर है ही और ज्ञान का स्वभाव लोकालोक को झलकाने का है इसलिये ही वह 'ज्ञान' नाम पाता है, अन्यथा नहीं। उस ज्ञेय रूप झलकन को गौण करते ही वहाँ ज्ञान मात्र रूप = परम पारिणामिक भाव रूप = ज्ञायक हाज़िर ही है। इसलिये 'आत्मा वास्तव में पर को जानती ही नहीं' ऐसी प्ररूपणा करके आत्मा के लक्षण का अभाव करने से आत्मा का ही अभाव होता है) और वह आत्म स्वभाव को आदि-अन्त से रहित प्रगट करता है (परम पारिणामिक भाव वह आत्मा का अनादि-अनन्त 'स्व' भावन रूप 'स्व' भाव है। वह त्रिकाल शुद्ध होने से उसे आदि-अन्त से रहित कहा है) और वह आत्म स्वभाव को एक - सभी भेद भावों से (द्वैत भावों से) रहित एकाकार प्रगट करता है। (सभी प्रकार के भेद रूप भाव जैसे कि द्रव्य-गुण-पर्याय, ज्ञान-दर्शन-चारित्र, निषेध रूप, स्व-पर रूप भावों से रहित प्रगट करता है) और जिसमें समस्त संकल्प-विकल्प के समूह विलय हो गये हैं ऐसा प्रगट करता है। (अर्थात् उदय, क्षयोपशम भावों को गौण करते ही परम पारिणामिक भाव रूप आत्मा में कुछ भी संकल्प-विकल्प, नय-प्रमाण-निक्षेप इत्यादि रहते ही नहीं - ऐसा आत्मा प्रगट करता है)। ऐसा शुद्ध नय प्रकाश रूप होता है।'
गाथा १४ : गाथार्थ :- 'जो नय आत्मा को (१) बन्ध रहित और (२) पर के स्पर्श रहित, (३) अन्यपने रहित, (४) चलाचलता रहित, (५) विशेष रहित (अर्थात् विशेष को गौण करते ही जो एक सामान्य रूप भाव अर्थात् परम पारिणामिक भाव रूप जीव है वह अन्य के लक्ष्य से होनेवाले सर्व भाव जो कि विशेष हैं, उनसे रहित ही होता है), अन्य के संयोग रहित - ऐसे पाँच भाव रूप देखता है, उसे हे शिष्य! तू शुद्ध नय जान।' अर्थात् जैसा हमने पूर्व में बतलाया, वैसे सभी पर द्रव्य तथा पर द्रव्य के लक्ष्य से होनेवाले आत्मा के भावों से (उन्हें गौण करके) भेद ज्ञान करने से शुद्ध नय रूप अर्थात् अभेद ऐसा पंचम भाव रूप सम्यग्दर्शन का विषय (दृष्टि का विषय) प्राप्त होता है।
गाथा १४ : टीका :- ‘निश्चय से अबद्ध-अस्पृष्ट (आत्मा के उदय, उपशम, क्षयोपशम और क्षायिक ऐसे चार भावों से अबद्ध-अस्पृष्ट), अनन्य (तथापि आत्मा के परिणमन = पर्याय से अनन्य परम पारिणामिक भाव रूप = कारण शुद्ध पर्याय रूप), नियत (नियम से एक समान सहज परिणमन रूप), अविशेष (जिसमें विशेष रूप चारों ही भावों का अभाव है ऐसा सामान्य परिणमन रूप = सहज परिणमन रूप) और असंयुक्त (कि जो ऊपर कहे, वैसे चार भावों से संयुक्त नहीं है - इन चार भावों को गौण करते ही शुद्ध नय का आत्मा प्राप्त होता है, वैसा असंयुक्त)