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नियमसार के अनुसार सम्यग्दर्शन और ध्यान का विषय
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__ अर्थात् ऐसी शुद्धात्मा में मग्न रहनेवाले परम पुरुष, कोई विधि का अनुसरण करे या न करे तो उन्हें उस में कुछ भी दोष नहीं है इसलिये उनके लिये कोई विधि निषेध नहीं है ऐसा बतलाया है।
श्लोक १५६ :- ‘जो सकल इन्द्रियों के समूह से उत्पन्न होनेवाले कोलाहल से विमुक्त है (अर्थात् जो ज्ञान सकल इन्द्रियों से होता है, ऐसे ज्ञानाकार रूप विशेष, जिसमें गौण है ऐसा सामान्य ज्ञान है), जो नय और अनय के समूह से दर है (अर्थात् नयातीत है, क्योंकि नय विकल्पात्मक होते हैं और सम्यग्दर्शन का विषय रूप स्वरूप, सर्व विकल्पों से रहित है अर्थात् वह नयातीत) होने पर भी योगियों को (अर्थात् आत्म ज्ञानियों को) गोचर है (अर्थात् नित्य लब्ध रूप और कभी उपयोग रूप है), जो सदा शिवमय है (अर्थात् सिद्ध सदृश भाव है), उत्कृष्ट है और जो अज्ञानियों को परम दूर है (क्योंकि वे शुद्धात्मा को एकान्त से ग्रहण करने का प्रयास करते हैं अर्थात् जैसा वह है नहीं, वैसी उसकी कल्पना करके ग्रहण करने का प्रयास करते हैं इसलिये वे मात्र भ्रम में ही रहते हैं और सत्य स्वरूप से योजनों दूर रहते हैं) ऐसा यह अनघ (शुद्ध) चैतन्यमय सहज तत्त्व अत्यन्त जयवन्त (बारम्बार अवलम्बन करने योग्य) है।'
श्लोक १५७ :- “निज सुख रूपी सुधा के सागर में (यहाँ एक स्पष्टीकरण आवश्यक है कि कोई वर्ग ऐसा मानता है कि योग पद्धति से सुधा रस का पान करने से आत्मा का अनुभव होता है अर्थात् सम्यग्दर्शन होता है। उन्हें एक बात यहाँ स्पष्ट समझने योग्य है कि जो अतीन्द्रिय आनन्द है कि जो स्वात्मानुभूति से आता है, उसे ही शास्त्रों में सुधा का सागर अर्थात् सुधा रस कहा है, परन्तु किसी शारीरिक क्रिया अथवा तो पुद्गल रूपी रस के विषय की यहाँ बात नहीं है, क्योंकि अनुभव काल में कोई देह भाव होता ही नहीं, स्वयं मात्र शुद्धात्म रूप ही होता है तो पुद्गल रूपी रस की बात ही कहाँ से होगी? अर्थात् होती ही नहीं, ऐसे सुधा के सागर में) डूबते हुए इस शुद्धात्मा को जानकर भव्य जीव परम गुरु द्वारा (इस ज्ञान का प्रायः अभाव होने से इसकी दुर्लभता बतलाने को परम गुरु शब्द प्रयोग किया है) शाश्वत सुख को प्राप्त करते हैं; इसलिये, भेद के अभाव की दृष्टि से (अर्थात् स्वानुभूति में कुछ भेद ही नहीं अर्थात् वहाँ द्रव्य-पर्याय अथवा तो पर्याय के निषेध इत्यादि रूप कोई भेद ही नहीं है, उसमें तो मात्र द्रव्य दृष्टि ही महत्त्व की है कि जिसमें पर्याय ज्ञात ही नहीं होती अर्थात् पूर्ण द्रव्य मात्र शुद्धात्मा रूप ही ज्ञात होता है; ऐसी दृष्टि से) जो सिद्धि से उत्पन्न होनेवाले सौख्य (अर्थात् अतीन्द्रिय आनन्द, नहीं कि पुद्गल रूपी सुधा रस) द्वारा शुद्ध है ऐसे किसी (अद्भुत) सहज तत्त्व को (परम पारिणामिक भाव रूप शुद्धात्मा को) मैं भी सदा अति अपूर्व रीति से अत्यन्त भाता हूँ।'