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उपयोग और लब्धि रूप सम्यग्दर्शन
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२१ उपयोग और लब्धि रूप सम्यग्दर्शन
___पंचाध्यायी उत्तरार्द्ध के श्लोकश्लोक ४०४ : अन्वयार्थ :- “इतना विशेष है कि सम्यग्दर्शन और स्वानुभव इन दोनों में विषम व्याप्ति है। क्योंकि ‘सम्यग्दर्शन के साथ में उपयोग रूप स्वानुभूति होए ही ऐसी समव्याप्ति नहीं है (अर्थात् सम्यग्दर्शन की उपस्थिति के समय स्वात्मानुभूति रूप अनुभव होता भी है और नहीं भी होता है। इसलिये समव्याप्ति अर्थात् अविनाभावी उपस्थिति नहीं होती) परन्तु लब्धि में अर्थात् लब्धि रूप (ज्ञान की लब्ध और उपयोग रूप ऐसी दो अवस्थायें होती हैं, उनमें लब्धि रूप अवस्था में) स्वानुभूति के साथ सम्यग्दर्शन की समव्याप्ति है (अर्थात् सम्यग्दर्शन की उपस्थिति में ज्ञान में लब्धि रूप से स्वानुभूति की उपस्थिति अविनाभावी अर्थात् नियम से होती ही है।)"
पूर्व में पंचाध्यायी उत्तरार्द्ध के श्लोक २१५ में बतलाये अनुसार आत्मा की उपलब्धि 'शुद्ध' विशेषण सहित होती है अर्थात् शुद्धोपयोग रूप स्वात्मानुभूति रूप अनुभव सहित हो तो ही वह सम्यग्दर्शन का लक्षण हो सकती है। यदि वह आत्मोपलब्धि अशुद्ध हो तो वह सम्यग्दर्शन का लक्षण नहीं बन सकती। परन्तु वह शुद्धोपयोग रूप स्वात्मानुभूति रूप अनुभव का सातत्य क्षणिक ही होने पर भी उसका सातत्य लब्ध रूप तो सम्यग्दर्शन की उपस्थिति के समय नियम से होता ही है।
पूर्व में हमने शुद्धात्मानुभूति को सम्यग्दर्शन के लक्षण के रूप में स्थापित किया, वह लक्षण उपयोग रूप बहत ही कम समय के लिये रहता है। परन्तु वह लक्षण, जब तक सम्यग्दर्शन होता है तब तक लब्ध रूप से उसके साथ अवश्यंभावी रहता है। यह बात जो लोग चतुर्थ गुणस्थानक में शुद्धात्मानुभूति नहीं मानते, उनको समझना अति आवश्यक है।