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पंचाध्यायी पूर्वार्द्ध की वस्तु व्यवस्था दर्शाते श्लोक
कोई द्रव्य को अपरिणामी और पर्याय उससे भिन्न (भिन्न प्रदेशी) परिणामी ऐसा मानता हो तो यहाँ बताया हुआ पहला दोष आयेगा। अब दूसरा दोष बताते हैं।
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श्लोक २०९ : अन्वयार्थ :- 'तथा यहाँ दूसरा भी यह दोष आयेगा कि - जो नित्य है वह निश्चय से नित्य रूप ही रहेगा तथा जो अनित्य है वह अनित्य ही रहेगा। इस प्रकार किसी भी वस्तु में अनेक धर्मत्व सिद्ध नहीं हो सकेगा अर्थात् वस्तु अनेक धर्मात्मक सिद्ध नहीं होगी।' अब तीसरा दोष बताते हैं ।
श्लोक २१० : अन्वयार्थ :- 'तथा यह एक द्रव्य है, यह गुण है और यह पर्याय है इस प्रकार का जो काल्पनिक भेद होता है (अर्थात् यह भेद वास्तविक नहीं है) वह भी नियम से भिन्न द्रव्य की भाँति बनेगा नहीं।' अर्थात् जिस अभेद वस्तु में समझाने के लिये काल्पनिक भेद किये हैं और इसलिये ही उसे कथंचित् कहा है उसे यदि वास्तविक भेद समझने में आवे तो द्रव्य और पर्याय ये दोनों भिन्न प्रदेशी, दो द्रव्य रूप ही बन जाने से भेद रूप व्यवहार न रहकर नियम से भिन्न द्रव्य की भाँति भिन्न प्रदेशी ही बन जायेंगे और द्रव्य-गुण-पर्याय रूप जो काल्पनिक भेद होते हैं, वैसे काल्पनिक भेद नहीं बनेंगे।
आगे शंकाकार नयी शंका करता है कि -
श्लोक २११ : अन्वयार्थ :- 'शंकाकार का कहना ऐसा है कि - समुद्र की भाँति वस्तु को नित्य मानें तथा गुण को भी नित्य मानें और पर्यायें लहर की भाँति उत्पन्न और नाश होनेवाली मानें तो' – पदार्थ को समुद्र और लहर के उदाहरण से ऐसा मानें कि - द्रव्य = समुद्र का दल एकान्त से नित्य और पर्याय लहर एकान्त से अनित्य मानें तो क्या हानि है ? उसका समाधान
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श्लोक २१२ : अन्वयार्थ :- 'ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि समुद्र और लहरों (तरंगों ) का दृष्टान्त शंकाकार के प्रकृत-उपरोक्त अर्थ का ही बाधक है (खण्डन करता है) तथा शंकाकार द्वारा नहीं कहे गये प्रकृत अर्थ के विषयभूत इस वक्ष्यमान ( कथन करने से ) कथंचित् नित्यअनित्यात्मक अभेद अर्थ का साधक है।'
यहाँ याद रखना कि अभेद का साधक कहा है अर्थात् द्रव्य अभेद है उसमें भेद उत्पन्न करके कहा जाता है, भिन्न प्रदेश रूप वास्तविक नहीं और दूसरा, प्रस्तुत उदाहरण से ही अभेद द्रव्य सिद्ध होता है। क्योंकि जो लहर = कल्लोल है, वह समुद्र की ही बनी है अर्थात् वह समुद्र ही उस रूप में परिणमित हुआ है इसलिये वह समुद्र ही है ऐसा अभेद स्वरूप है द्रव्य का।