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समयसार के अनुसार सम्यग्दर्शन का विषय
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सर्वांग प्रगट हुई है (अर्थात् ऐसी शुद्धात्मा का अनुभव हुआ है); अब यह समस्त लोक (अर्थात् समस्त विकल्प रूप लोक - विभाव रूप लोक) उसके शान्त रस में (अर्थात् अतीन्द्रिय आनन्द रूप अनुभूति में) एक साथ ही अत्यन्त मग्न हो (अर्थात् अपने को निर्विकल्प अनुभवता है वह) कैसा है शान्त रस (अर्थात् अतीन्द्रिय आनन्द)? समस्त लोक पर्यन्त उछल रहा है (अर्थात् अमाप, अनहद, उत्कृष्ट) है।' ऐसी है आत्मा की अनुभूति कि जो हम अनेक बार अनुभवते हैं और वह सभी मुमुक्षु जीवों को प्राप्त हो ऐसा चाहते हैं।
इस प्रकार सम्यग्दर्शन की सिद्धि होने से, यहीं समयसार पूर्ण हो जाता है; अब बाद का जो विस्तार है, वह तो मात्र विस्तार रुचि जीवों को, विस्तार से इसी शुद्धात्मा में 'मैंपन' कराकर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिये, विस्तार से भेद ज्ञान समझाया है। अर्थात् यह जीव अनादि से जो नौ तत्त्वों रूप अलग-अलग वेश में परिणम कर और पर में कर्ता भाव को पोषण कर ठगा जाता है। उस ठगाई को स्पष्ट करके उस ठगाई से बचने के लिये विस्तार से सभी भावों से भेद ज्ञान कराया है। किसी को ऐसा नहीं समझना चाहिये कि यह नौ तत्त्व रूप भाव एकान्त से जीव के नहीं हैं अर्थात् ये नौ तत्त्व रूप भाव हैं तो जीव के ही, परन्तु उनमें 'मैंपन' करने योग्य वे भाव नहीं हैं, इस अपेक्षा से उन्हें जीव के नहीं हैं ऐसा कहा है और उन्हें उसी प्रकार से समझना अति आवश्यक है। यदि कोई एकान्त से ऐसा कहे कि ये नौ तत्त्व रूप भाव मेरे भाव ही नहीं हैं तो वह भ्रम रूप परिणमकर अनन्त संसार को बढ़ानेवाला बनेगा। इसलिये जिस अपेक्षा से जहाँ जो कहा हो, उसी अपेक्षा से वहाँ वह समझना और वैसा ही आचरण करना अत्यन्त आवश्यक है, अन्यथा तो स्वच्छन्दता से भ्रम रूप परिणम कर अपने को ज्ञानी मानता हुआ वह जीव अपना और अन्य अनेक का अहित करता हुआ, स्वयं तो भ्रष्ट है ही और अन्य अनेकों को भी भ्रष्ट करेगा।