Book Title: Samyag Darshan Ki Vidhi
Author(s): Jayesh Mohanlal Sheth
Publisher: Shailendra Punamchand Shah

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Page 231
________________ नित्य चिन्तन कणिकाएँ 225 ४० नित्य चिन्तन कणिकाएँ एक समकित पाये बिना, जप तप क्रिया फोक। जैसा मुर्दा सिंगारना, समझ कहे तिलोक।। अर्थात् सम्यग्दर्शन रहित सर्व जप-तप-क्रिया, श्रावकपना, क्षुल्लकपना, साधुपना इत्यादि मुर्दे को शृंगारित करने जैसा निरर्थक है। यहाँ कहने का भावार्थ यह है कि सम्यग्दर्शन के बिना तप-जप-क्रिया श्रावकपना, क्षुल्लकपना, साधुपना भव का अन्त करने में कार्यकारी नहीं हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि वे नहीं करने चाहिये। परन्तु उनसे ही सन्तुष्ट नहीं हो जाना चाहिये अर्थात् उन्हें करके ही अपने को कृतकृत्य न समझकर, सारे प्रयत्न एकमात्र निश्चय सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिये ही करने चाहिये। भगवान के दर्शन किस प्रकार करना ? भगवान के गुणों का चिन्तवन करना और भगवान, भगवान बनने के लिये जिस मार्ग में चले, उस मार्ग में चलने का दृढ़ निर्णय करना, यही सच्चा दर्शन है। सम्पूर्ण संसार और सांसारिक सुखों के प्रति वैराग्य के बिना अर्थात् संसार और सांसारिक सुखों में रुचि रहते मोक्षमार्ग की शुरुआत होना अत्यन्त दुर्लभ है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होना अत्यन्त दुर्लभ है। • जीव को चार संज्ञा-आहार, मैथुन, परिग्रह और भय अनादि से हैं; इसलिये उनके विचार सहज होते हैं। वैसे विचारों से जिन्हें छुटकारा चाहिये हो, उन्हें उन की ओर स्वयं की रुचि तलाशना। जब तक ये संज्ञाएँ रुचती हैं या इन में सुख भासित होता है तब तक उनसे छुटकारा मिलना कठिन है। जैसे कि कुत्ते को हड्डी चूसने को देने पर वह ऐसा समझता है कि खून हड्डी में से निकलता है और इसलिये उसे उसका आनन्द होता है कि जो मात्र उसका भ्रम ही है, इसी तरह जीव अनादि से भ्रम में ही है। इस प्रकार जब तक यह आहार, मैथुन, परिग्रह और भय अर्थात् बलवान का डर और कमज़ोर को डराना/दबाना रुचता है, वहाँ तक उस जीव को उस के विचार सहज होते हैं और इसलिये उस के संसार का अन्त नहीं होता। इस कारण मोक्षेच्छु को इस अनादि के उल्टे संस्कारों को मूल से निकालने का पुरुषार्थ करने योग्य है जिसके लिये सर्व प्रथम इन संज्ञाओं के प्रति आदर

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