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सम्यग्दर्शन की विधि
रूप पंचम भाव - परम पारिणामिक भाव को) उसने छोड़ा ही नहीं और अन्य ऐसे पर भाव को (अर्थात्
औदयिक, उपशम और क्षयोपशम भाव को) कि जो वास्तव में पौद्गलिक विकार है उसे-वह ग्रहण ही नहीं करता (मैंपन ही करता नहीं)।' ।
श्लोक १३३ :- ‘जो मुक्ति साम्राज्य का मूल है (अर्थात् सम्यग्दर्शन का विषय है क्योंकि सम्यग्दर्शन वह मुक्ति साम्राज्य का मूल है) ऐसे इस निरुपम, सहज परमानन्दवाले एक चिद्रूप को (चैतन्य के स्वरूप को = सामान्य ज्ञान मात्र को) चतुर पुरुषों के द्वारा सम्यक् प्रकार से ग्रहण करना योग्य है (अर्थात् एक सामान्य ज्ञान मात्र भाव कि जो सहज परिणमनयुक्त परम पारिणामिक भाव है, उसमें ही चतुर पुरुषों को 'मैंपन' करने योग्य है); इसलिये हे मित्र! तू भी मेरे उपदेश के सार को (और यही सभी जिनागमों का सार है अर्थात् समयसार का सार है अर्थात् समयसार को) सुनकर, तुरन्त ही उग्र रूप से इस चैतन्य-चमत्कार के प्रति अपनी वृत्ति कर।'
अर्थात् तू भी उसे ही लक्ष्य में ले और उसमें ही 'मैंपन' कर कि जिससे तू भी आत्म-ज्ञानी रूप से परिणम जायेगा अर्थात् तुझे भी सम्यग्दर्शन प्रगट होगा अर्थात् यहाँ सम्यग्दर्शन की विधि बतलायी है।
श्लोक १३५ :- ‘मेरे सहज सम्यग्दर्शन में, शुद्ध ज्ञान में, चारित्र में, सुकृत और दुष्कृत रूपी कर्म द्वन्द्व के संन्यास काल में (समयसार गाथा ६ अनुसार का भाव अर्थात् जो प्रमत्त भी नहीं और अप्रमत्त भी नहीं, ऐसा एकज्ञायक भाव रूप) संवर में और शुद्ध योग में (शुद्धोपयोग में) वह परमात्मा ही है (अर्थात् सम्यग्दर्शनादि सबका आश्रय - अवलम्बन शुद्धात्मा ही है कि जो सिद्ध सम ही भाव है); मुक्ति की प्राप्ति के लिये जगत में दूसरा कोई भी पदार्थ नहीं है, नहीं है।' अर्थात् दृष्टि के विषय की ही दृढ़ता करायी है।
श्लोक १३६:- ‘जो कभी निर्मल दिखायी देता है कभी निर्मल तथा अनिर्मल दिखायी देता है तथा कभी अनिर्मल दिखायी देता है अर्थात् शुद्ध नय (द्रव्य दृष्टि) से निर्मल ज्ञात होता है, प्रमाण दृष्टि से निर्मल तथा अनिर्मल दिखायी देता है और अशुद्ध नय (पर्याय दृष्टि) से अनिर्मल दिखायी देता है और इस कारण से अज्ञानी के लिये जो गहन है (इसलिये ही बहुत लोग आत्मा को एकान्त शुद्ध अथवा अशुद्ध धार लेते हैं और दूसरे लोग आत्मा को एक भाग शुद्ध और एक भाग अशुद्ध, ऐसी धारणा कर लेते हैं), वही - कि जिसने निजज्ञान रूपी दीपक से पाप तिमिर को नष्ट किया है वही (अर्थात् जिसने प्रज्ञा छैनी अर्थात् तीक्ष्ण बुद्धि से सर्व विभाव भावों को गौण करके जो परम पारिणामिक भाव रूप शुद्धात्मा ग्रहण किया है अर्थात् उसमें ही मैंपन' किया है और ऐसा करते ही