________________
सम्यग्दर्शन के लिये योग्यता
97
हैं और अपनी प्रसन्नता भी अक्षत रख सकते हैं। परन्तु जिस जीव को मत-पन्थ-सम्प्रदाय का पक्ष, आग्रह, हठाग्रह या दुराग्रह होगा, उस जीव के लिये “धन्यवाद! स्वागतम् ! (Thank you! Welcome!)" का भाव रखना असम्भव ही होगा क्योंकि उस जीव को अपना-परायापन और पसन्द-नापसन्दगी के तीव्र भाव होने से, अपने मत-पन्थ-सम्प्रदाय का घमण्ड होने से और अपने आप को अन्यों से ऊँचा मानने से, अन्यों के लिये तो वह तिरस्कार, रोष और तुच्छपने का ही भाव रखेगा; ऐसे भाव अध्यात्म के घातक होने से ही ज्ञानियों ने मत-पन्थ-सम्प्रदाय के पक्ष, आग्रह, हठाग्रह या दुराग्रह सेवन करने से रोका है। फिर भी अगर कोई जीव एक सम्प्रदाय विशेष का आग्रह रखकर, उसी सम्प्रदाय विशेष में सम्यग्दर्शन है ऐसा मानकर अध्यात्म मार्ग में आगे बढ़ना चाहता है तो यह, उस जीव की बहत बड़ी गलती होगी और उसे अध्यात्म मार्ग तो दर संसार में भी शान्ति और प्रसन्नता मिलना-टिकना कठिन हो जाएगा।
धन्यवाद! स्वागतम्! (Thank you! Welcome!)" एक बात तो निश्चित ही है कि हमें जो भी दुःख आता है, उसमें दोष हमारे पूर्व पापों का ही होता है, अन्य किसी का भी नहीं। जो अन्य कोई दःख देते ज्ञात होते हैं, वे तो मात्र निमित्त ही हैं। उसमें उनका कुछ भी दोष नहीं है। वे तो आपको, आपके पाप से छुड़ानेवाले हैं। तथापि ऐसी समझ न होने से आपको निमित्त के प्रति ज़रा सा भी रोष (क्रोध) आये तो फिर से
आपको पाप का बन्धन होता है, जो कि भविष्य के दु:खों का जनक (कारण) बनता है। इसी प्रकार अनादि से हम दुःख भोगते हुए, नये दु:खों का सृजन करते आ रहे हैं और अभी भी कर रहे हैं। इसलिये ऐसे अनन्त दुःखों से छूटने का मात्र एक ही मार्ग है कि दु:ख के निमित्त को मैं उपकारी मानूं, क्योंकि वह मुझे पाप से छुड़ाने में निमित्त हुआ है। उस निमित्त का किंचित् भी दोष गुनाह चिन्तवन न करूँ, परन्तु अपने पूर्व के पाप ही अर्थात् अपने पूर्व के दुष्कृत्य ही वर्तमान दुःख के कारण हैं; इसलिये दु:ख के समय ऐसा चिन्तवन करना कि :
१. ओहो! मैंने ऐसा दुष्कृत्य किया था! धिक्कार है मुझे! धिक्कार है! उस दुष्कृत्य के लिये मिच्छामि दुक्कडं! उत्तम क्षमा! (यह हुआ प्रतिक्रमण)
२. और अब मैं निर्णय करता हूँ कि ऐसे किसी भी दुष्कृत्य का आचरण फिर से कभी नहीं करूँगा! नहीं ही करूँगा! (यह हुआ प्रत्याख्यान) और
३. अपने दु:ख के कारण रूप से अन्यों को दोषी देखना छोड़कर अपने ही पूर्वकृत भावों अर्थात् पूर्व के अपने ही पाप कर्मों का ही दोष देखकर, अन्यों को उन पापों से छुड़ानेवाला