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पहला अधिकार ]
[३
आचार्य-उपाध्याय-साधुका सामान्य स्वरूप
अब, आचार्य-उपाध्याय-साधुके स्वरूप का अवलोकन करते हैं :
जो विरागी होकर, समस्त परिग्रहका त्याग करके, शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्म अंगीकार करके - अंतरंगमें तो उस शुद्धोपयोग द्वारा अपनेको आपरूप अनुभव करते हैं; परद्रव्यमें अहंबुद्धि धारण नहीं करते, तथा अपने ज्ञानादिक स्वभावहीको अपना मानते हैं; परभावोंमें ममत्व नहीं करते. तथा जो परद्रव्य व उनके स्वभाव ज्ञान में प्रतिभासित होते हैं उन्हें जानते तो हैं परन्तु इष्ट-अनिष्ट मानकर उनमें राग-द्वेष नहीं करते; शरीर की अनेक अवस्थाएँ होती हैं, बाह्य नाना निमित्त बनते हैं, परन्तु वहाँ कुछ भी सुख-दुःख नहीं मानते; तथा अपने योग्य बाह्य क्रिया जैसे बनती हैं वैसे बनती हैं; खींचकर उनको नहीं करते; तथा अपने उपयोगको बहुत नहीं भ्रमाते हैं; उदासीन होकर निश्चलवृत्तिको धारण करते हैं; तथा कदाचित् मंदरागके उदयसे शुभोपयोग भी होता है - उससे जो शुद्धोपयोगके बाह्य साधन हैं उनमें अनुराग करते हैं; परन्तु उस रागभावको हेय जानकर दूर करना चाहते हैं; तथा तीव्र कषायके उदयका अभाव होने से हिंसादिरूप अशुभोपयोग परिणतिका तो अस्तित्व ही नहीं रहा है; तथा ऐसी अंतरंग (अवस्था) होने पर बाह्य दिगम्बर सौम्यमुद्राधारी हुए हैं, शरीरका सँवारना आदि विक्रियाओंसे रहित हुए हैं, वनखण्डादिमें वास करते हैं; अट्ठाईस मूलगुणोंका अखण्डित पालन करते हैं; बाईस परीषहोंको सहन करते हैं; बारह प्रकारके तपोंको आदरते हैं; कदाचित् ध्यानमुद्रा धारण करके प्रतिमावत् नश्चल होते हैं; कदाचित् अध्ययनादिक बाह्य धर्मक्रियाओंमें प्रवर्तते हैं, कदाचित् मुनिधर्मके सहकारी शरीरकी स्थितिके हेतु योग्य आहार-विहारादि क्रियाओंमें सावधान होते हैं।
ऐसे जैन मुनि हैं उन सबकी ऐसी ही अवस्था होती है।
आचार्यका स्वरूप
उनमें जो सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्रकी अधिकतासे प्रधान पद प्राप्त करके संघमें नायक हुए हैं; तथा जो मुख्यरूपसे तो निर्विकल्प स्वरूपाचरणमें ही मग्न हैं और जो कदाचित् धर्मके लोभी अन्य जीव-याचक उनको देखकर राग अंशके उदयसे करूणाबुद्धि हो तो उनको धर्मोपदेश देते हैं, जो दीक्षाग्राहक हैं उनको दीक्षा देते हैं; जो अपने दोषोंको प्रगट करते हैं उनको प्रायश्चित विधिसे शुद्ध करते हैं।
ऐसे आचरण अचरानेवाले आचार्य उनको हमारा नमस्कार हो।
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