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छठवाँ अधिकार ]
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अर्थ :- कलिकालमें तपस्वी मृगकी भाँति इधर-उधरसे भयभीत होकर वनसे नगरके समीप वास करते हैं, यह महाखेदकारी कार्य है। यहाँ नगरके समीपही रहनेका निषेध किया, तो नगरमें रहना तो निषिद्ध हुआ ही।
वरं गार्हस्थ्यमेवाद्य तपसो भाविजन्मनः। सुस्त्रीकटाक्षलुण्टाकलुप्तवैराग्यसम्पदः ।। २०० ।। अर्थ :- होनेवाला है अनन्त संसार जिससे ऐसे तपसे गृहस्थपना ही भला है। कैसा है वह तप? प्रभात होते ही स्त्रियोंके कटाक्षरूपी लुटेरों द्वारा जिसकी वैराग्य-सम्पदा लुट गई है - ऐसा है।
तथा योगीन्द्रदेवकृत “ परमात्मप्रकाशमे" ऐसा कहा है :
चिल्लाचिल्लीपुत्थियहिं, तूसइ मूढु णिभंतु। ___ एयहिं लज्जइ णाणियउ, बंधहं हेउ मुणंतु।। २१५ ।।
चेला-चेली और पुस्तकों द्वारा मूढ़ संतुष्ट होता है; भ्रान्तिरहित ऐसा ज्ञानी उन्हें बन्धका कारण जानता हुआ उनसे लज्जायमान होता है।
केणवि अप्पउ वंचियउ, सिरुटुंचिवि छारेण। सयलवि संग ण परिहरिय, जिणवरलिंगधरेण।। २१७ ।। किसी जीव द्वारा अपना आत्मा ठगा गया, वह कौन ? कि जिस जीवने जिनवरका लिंग धारण किया और राखसे सिरका लोंच किया; परन्तु समस्त परिग्रह नहीं छोड़ा।
जे जिणलिंगु धरेवि मुणि, इट्ठपरिग्गह लिंति। छद्दि करेविणु ते जि जिय,सा पुणु छद्दि गिलंति।। २१८ ।।
अर्थ :- हे जीव! जो मुनि जिनलिंग धारण करके इष्ट परिग्रहको ग्रहण करते हैं, वे छर्दि ( उल्टी) करके उसी छर्दिका पुनः भक्षण करते हैं अर्थात् निन्दनीय हैं। इत्यादि वहाँ कहते हैं।
इस प्रकार शास्त्रोंमें कुगुरुका व उनके आचरणका व उनकी सुश्रुषाका निषेध किया है सो जानना।
तथा जहाँ मुनिको धात्री-दूत आदि छयालीस दोष आहारादिमें कहे हैं; वहाँ गृहस्थोंके बालकोंको प्रसन्न करना, समाचार कहना, मंत्र-औषधि-ज्योतिषादि कार्य बतलाना तथा किया-कराया, अनुमोदित भोजन लेना - इत्यादि क्रियाओंका निषेध किया है; परन्तु अब कालदोषसे इन्हीं दोषोंको लगाकर आहारादि ग्रहण करते हैं।
तथा पार्श्वस्थ, कुशीलादि भ्रष्टाचारी मुनियोंका निषेध किया है, उन्हींके लक्षणोंको धारण करते हैं। इतना विशेष है कि - वे द्रव्यसे तो नग्न रहते हैं, यह नाना परिग्रह
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