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तीसरा अधिकार ]
प्रथम
इसे जगत सुख मानता है, परन्तु यह सुख है नहीं, दुःख ही है। क्योंकि तो सर्व प्रकारकी इच्छा पूर्ण होनेके कारण किसीके भी नहीं बनते। और किसी प्रकार इच्छा पूर्ण करनेके कारण बनें तो युगपत् उनका साधन नहीं होता । सो एकका साधन जब तक न हो तब तक उसकी आकुलता रहती है; और उसका साधन होने पर उस ही समय अन्यके साधनकी इच्छा होती है तब उसकी आकुलता होती है। एक समय भी निराकुल नहीं रहता, इसलिये दुःख ही है। अथवा तीन प्रकारकी इच्छारूपी रोगको मिटानेका किंचित् उपाय करता है, इसलिये किंचित् दुःख कम होता है, सर्व दुःखका तो नाश नहीं होता, इसलिये दुःख ही | - इस प्रकार संसारी जीवोंको सर्व प्रकारसे दुःख ही है।
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तथा यहाँ इतना जानना कि तीन प्रकारकी इच्छासे सर्व जगत पीड़ित है और चौथी इच्छा तो पुण्यका उदय आने पर होती है, तथा पुण्यका बंध धर्मानुरागसे होता है, परन्तु धर्मानुरागमें जीव कम लगता है, जीव तो बहुत पाप क्रियाओंमें ही प्रवर्तता है। इसलिये चौथी इच्छा किसी जीवके किसी कालमें ही होती है ।
यहाँ इतना जानना कि समान इच्छावान जीवोंकी अपेक्षा तो चौथी इच्छावालेके किंचित् तीन प्रकारकी इच्छाके घटनेसे सुख कहते हैं । तथा चौथी इच्छावालेकी अपेक्षा महान इच्छावाला चौथी इच्छा होने पर भी दुःखी होता है। किसीके बहुत विभूति है और उसके इच्छा बहुत है तो बहुत आकुलतावान है; और जिसके थोड़ी विभूति है तथा उसके इच्छा भी थोड़ी है तो वह थोड़ा आकुलतावान है । अथवा किसीको अनिष्ट सामग्री मिली है और उसे उसको दूर करनेकी इच्छा थोड़ी है तो वह थोड़ा आकुलतावान है। तथा किसीको इष्ट सामग्री मिली है परन्तु उसे उसको भोगनेकी तथा अन्य सामग्रीकी इच्छा बहुत है तो वह जीव बहुत आकुलतावान है। इसलिये सुखी - दुःखी होना इच्छाके अनुसार जानना, बाह्य कारणके आधीन नहीं है।
नारकी दुःखी और देव सुखी कहे जाते हैं वह भी इच्छाकी ही अपेक्षा कहते हैं क्योंकि नारकियोंको तीव्र कषायसे इच्छा बहुत है और देवोंके मन्दकषायसे इच्छा थोड़ी है। तथा मनुष्य, तिर्यंचोंको भी सुखी - दुःखी इच्छा ही की अपेक्षा जानना । तीव्र कषायसे जिसके इच्छा बहुत है उसे दुःखी कहते हैं, मन्द कषायसे जिसके इच्छा थोड़ी है उसे सुखी कहते हैं। परमार्थसे दुःख ही बहुत या थोड़ा है, सुख नहीं है । देवादिकोंको भी सुखी मानते हैं वह भ्रम ही है। उनके चौथी इच्छाकी मुख्यता है इसलिये आकुलित हैं ।
इस प्रकार जो इच्छा होती है वह मिथ्यात्व, अज्ञान, असंयमसे होती है। तथा इच्छा है सो आकुलतामय है और आकुलता है वह दुःख है। इस प्रकार सर्व संसारी जीव नाना दुःखोंसे पीड़ित ही हो रहे हैं।
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