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[ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा जो सम्यक्त्वरहित मुनिलिंग धारण करे, व द्रव्यसे भी कोई अतिचार लगाता हो, उसे मुनि कहते हैं। सो मुनि तो षष्ठादि गुणस्थानवर्ती होनेपर होता है; परन्तु पूर्ववत् उपचार से उसे मुनि कहा है। समवसरणसभामें मुनियोंकि संख्या कही, वहाँ सर्व ही शुद्ध भावलिंगी मुनि नहीं थे; परन्तु मुनिलिंग धारण करने से सभी को मुनि कहा। इसी प्रकार अन्यत्र जानना।
___ तथा प्रथमानुयोगमें कोई धर्मबुद्धि से अनुचित कार्य करे उसकी भी प्रशंसा करते हैं। जैसे - विष्णुकुमारने मुनियोंका उपसर्ग दूर किया सो धर्मानुराग से किया; परन्तु मुनिपद छोड़कर यह कार्य करना योग्य नहीं था, क्योंकि ऐसा कार्य तो गृहस्थ धर्ममें सम्भव है, और गृहस्थधर्मसे मुनिधर्म ऊँचा है; सो ऊँचा धर्म छोड़कर नीचा धर्म अंगीकार किया वह अयोग्य है; परन्तु वात्सल्य अंग की प्रधानता से विष्णुकुमारजी की प्रशंसा की है। इस छलसे औरोंको ऊँचा धर्म छोड़कर नीचा धर्म अंगीकार करना योग्य नहीं है
तथा जिस प्रकार ग्वालेने मुनि को अग्निसे तपाया, सो करुणासे यह कार्य किया; परन्तु आये हुए उपसर्ग को तो दूर करे, सहज अवस्थामें जो शीतादिकका परिषह होता है, उसे दूर करने पर रति मानने का कारण होता है, और उसे रति करना नहीं उलटा उपसर्ग होता है। इसीसे विवेकी उनके शीतादिकका उपचार नहीं करते। ग्वाला अविवेकी था, करुणासे यह कार्य किया, इसलिये उसकी प्रशंसा की है, परन्तु इस छल से औरोंको धर्मपद्धतिमें जो विरुद्ध हो वह कार्य करना योग्य नहीं है।
तथा जैसा - वज्रकरणराजाने सिंहोदर राजाको नमन नहीं किया, मुद्रिकामें प्रतिमा रखी; सो बड़े-बड़े सम्यग्दृष्टि राजादिकको नमन करते हैं, उसमें दोष नहीं है; तथा मुद्रिकामें प्रतिमा रखनेमें अविनय होती है, यथावत् विधिसे ऐसी प्रतिमा नहीं होती, इसलिये इस कार्य में दोष है; परन्तु उसे ऐसा ज्ञान नहीं था, उसे तो धर्मानुरागसे 'मैं और को नमन नहीं करूँगा' ऐसी बुद्धि हुई; इसलिये उसकी प्रशंसा की है। परन्तु इस छल से औरोंको ऐसे कार्य करना योग्य नहीं है।
तथा कितने ही पुरुषोंने पुत्रादिककी प्राप्तिके अर्थ अथवा रोगकष्टादि दूर करनेके अर्थ चैत्यालय पूजनादि कार्य किये, स्तोत्रादि किये, नमस्कारमन्त्र स्मरण किया; परन्तु ऐसा करनेसे तो निःकांक्षितगुणका अभाव होता है, निदानबन्ध नामक आर्तध्यान होता है, पापहीका प्रयोजन अंतरंगमें है इसलिये पापही का बन्ध होता है; परन्तु मोहित होकर भी बहुत पापबन्ध का कारण कुदेवादिका तो पूजनादि नहीं किया, इतना उसका गुण ग्रहण करके उसकी प्रशंसा करते हैं। इस छल से औरोंको लौकिक कार्योंके अर्थ धर्म साधन करना युक्त नहीं है। इसीप्रकार अन्यत्र जानना।
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