Book Title: Moksh marg prakashak
Author(s): Todarmal Pandit
Publisher: Kundkund Kahan Digambar Jain Trust

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Page 388
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ३४४] [ रहस्यपूर्ण चिट्ठी तथा इस स्वानुभवको मन द्वारा हुआ भी कहते हैं क्योंकि इस अनुभव में मतिज्ञानश्रुतज्ञान ही हैं, अन्य कोई ज्ञान नहीं है। मति-श्रुतज्ञान इन्द्रिय-मनके अवलम्बन बिना नहीं होता, सो यहाँ इन्द्रियका तो अभाव ही है, क्योंकि इन्द्रियका विषय मूर्तिक पदार्थ ही है। तथा यहाँ मनज्ञान है क्योंकि मनका विषय अमूर्तिक पदार्थ भी है, इसलिये यहाँ मन-सम्बन्धी परिणाम स्वरूपमें एकाग्र होकर अन्य चिन्ता का निरोध करते हैं, इसलिये इसे मन द्वारा कहते हैं। “ एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम्" ऐसा ध्यानका भी लक्षण ऐसे अनुभवदशा में सम्भव है। तथा समयसार नाटकके कवित्तमें कहा है : वस्तु विचारत ध्यावतै, मन पावै विश्राम । रस स्वादत सुख ऊपजै, अनुभव याकौ नाम ।। इसप्रकार मन बिना जुदे ही परिणाम स्वरूपमें प्रवर्तित नहीं हुए, इसलिये स्वानुभवको मनजनित भी कहते हैं; अत: अतीन्द्रिय कहनेमें और मनजनित कहनेमें कुछ विरोध नहीं है, विवक्षाभेद है। तथा तुमने लिखा कि “आत्मा अतीन्द्रिय है, इसलिये अतीन्द्रिय द्वारा ही ग्रहण किया जाता है;" सो (भाईजी) मन अमूर्तिक का भी ग्रहण करता है, क्योंकि मति-श्रुतज्ञानका विषय सर्वद्रव्य कहे हैं। उक्तं च तत्त्वार्थ सूत्रे : “ मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु ।” (१-२६) तथा तुमने प्रत्यक्ष-परोक्षका प्रश्न लिखा सो भाईजी, प्रत्यक्ष-परोक्ष तो सम्यक्त्व के भेद हैं नहीं। चौथे गुणस्थानमें में सिद्ध समान क्षायिक सम्यक्त्व हो जाता है, इसलिये सम्यक्त्व तो केवल यथार्थ श्रद्धान रूप ही है। वह (जीव) शुभाशुभकार्य करता भी रहता है। इसलिये तुमने जो लिखा था कि “निश्चयसम्यक्त्व प्रत्यक्ष है और व्यवहारसम्यक्त्व परोक्ष है", सो ऐसा नहीं है। सम्यक्त्वके तो तीन भेद हैं - वहाँ उपशमसम्यक्त्व और क्षायिकसम्यक्त्व तो निर्मल है, क्योंकि वे मिथ्यात्व के उदयसे रहित हैं और क्षयोपशमसम्यक्त्व समल है, क्योंकि सम्यक्त्वमोहनीयके उदयसे सहित है। परन्तु इस सम्यक्त्वमें प्रत्यक्ष-परोक्षके कोई भेद तो नहीं हैं। क्षायिक सम्यक्त्वीके शुभाशुभरूप प्रवर्त्तते हुए व स्वानुभवरूप प्रवर्त्तते हुए सम्यक्त्वगुण तो समान ही है, इसलिये सम्यक्त्वके तो प्रत्यक्ष-परोक्ष भेद नहीं मानना। तथा प्रमाण के प्रत्यक्ष-परोक्ष भेद हैं, सो प्रमाण सम्यग्ज्ञान है; इसलिये मतिज्ञानश्रुतज्ञान तो परोक्षप्रमाण हैं, अवधि-मनःपर्यय-केवलज्ञान प्रत्यक्षप्रमाण हैं। “आद्ये परोक्षं, Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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