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तीसरा अधिकार]
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तथा नामकर्मसे अशुभ गति, जाति आदि होनेपर दुःख मानता था, परन्तु अब उन सबका अभाव हुआ; दुःख कहाँसे हो ? तथा शुभगति, जाति आदि होनेपर किंचित् दुःख दूर होनेसे सुख मानता था; परन्तु अब उनके बिना ही सर्व दुःखका नाश और सर्व सुखका प्रकाश पाया जाता है। इसलिये उनका भी कुछ प्रयोजन नहीं रहा।
तथा गोत्रके निमित्तसे नीचकुल प्राप्त होनेपर दुःख मानता था, अब उसका अभाव होनेसे दुःखका कारण नहीं रहा; तथा उच्चकुल प्राप्त होनेपर सुख मानता था, परन्तु अब उच्चकुलके बिना ही त्रैलोक्य पूज्य उच्चपदको प्राप्त है।
इस प्रकार सिद्धोंके सर्व कर्मों का नाश होनेसे सर्व दुःखका नाश हो गया है।
दुःखका लक्षण तो आकुलता है, और आकुलता तभी होती है जब इच्छा हो; परन्तु इच्छाका तथा इच्छाके कारणोंका सर्वथा अभाव हुआ इसलिये निराकुल होकर सर्व दुःखरहित अनन्त सुखका अनुभव करता है; क्योंकि निराकुलता ही सुखका लक्षण है। संसारमें भी किसी प्रकार निराकुल होकर सब ही सुख मानते हैं; जहाँ सर्वथा निराकुल हुआ वहाँ सुख सम्पूर्ण कैसे नहीं माना जाये ?
इस प्रकार सम्यग्दर्शनादि साधनसे सिद्धपद प्राप्त करने पर सर्व दुःखका अभाव होता है, सर्व सुख प्रगट होता है।
अब यहाँ उपदेश देते हैं कि - हे भव्य! हे भाई!! तुझे जो संसारके दुःख बतलाए सो वे तुझपर बीतते हैं या नहीं, वह विचार। और तू जो उपाय करता है उन्हें झूठा बतलाया सो ऐसे ही हैं या नहीं, वह विचार। तथा सिद्धपद प्राप्त होनेपर सुख होता है या नहीं, उसका भी विचार कर। जैसा कहा है वैसी ही प्रतीति तुझे आती हो तो तू संसारसे छूटकर सिद्धपद प्राप्त करनेका हम जो उपाय कहते हैं वह कर, विलम्ब मत कर। यह उपाय करनेसे तेरा कल्याण होगा।
-इति श्री मोक्षमार्गप्रकाशक शास्त्रमें संसारदुःख तथा मोक्षसुखका निरूपक तृतीय अधिकार पूर्ण हुआ ।।३।।
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