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नौवाँ अधिकार]
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___ इसप्रकार उपदेशका तो निमित्त बने और अपना पुरुषार्थ करे तो कर्मका नाश होता
है।
तथा जब कर्मका उदय तीव्र हो तब पुरुषार्थ नहीं हो सकता; ऊपर के गुणस्थानोंसे भी गिर जाता है; वहाँ तो जैसी होनहार हो वैसा होता है। परन्तु जहाँ मन्द उदय हो और पुरुषार्थ होसके वहाँ तो प्रमादि नहीं होना; सावधान होकर अपना कार्य करना।
जैसे - कोई पुरुष नदी के प्रवाह में पड़ा बह रहा है, वहाँ पानी का जोर हो तब तो उसका पुरुषार्थ कुछ नहीं, उपदेश भी कार्यकारी नहीं। और पानी का जोर थोड़ा हो तब यदि पुरुषार्थ करके निकले तो निकल आयेगा। उसी को निकलने की शिक्षा देते हैं। और न निकले तो धीरे-धीरे बहेगा और फिर पानी का जोर होने पर बहता चला जायेगा। उसी प्रकार जीव संसारमें भ्रमण करता है, वहाँ कर्मोंका तीव्र उदय हो तब तो उसका पुरुषार्थ कुछ नहीं है, उपदेश भी कार्यकारी नहीं। और कर्मका मन्द उदय हो तब पुरुषार्थ करके मोक्षमार्गमें प्रवर्तन करे तो मोक्ष प्राप्त कर ले। उसी को मोक्षमार्ग का उपदेश देते हैं। और मोक्षमार्गमें प्रवर्तन नहीं करे तो किंचित् विशुद्धता पाकर फिर तीव्र उदय आने पर निगोदादि पर्याय को प्राप्त करेगा।
इसलिये अवसर चूकना योग्य नहीं है। अब सर्व प्रकार से अवसर आया है, ऐसा अवसर प्राप्त करना कठिन है। इसलिये श्रीगुरु दयालु होकर मोक्षमार्ग का उपदेश देते हैं, उसमें भव्य जीवोंको प्रवृत्ति करना।
मोक्षमार्गका स्वरूप अब, मोक्षमार्गका स्वरूप कहते हैं।
जिनके निमित्तसे आत्मा अशुद्ध दशाको धारण करके दुःखी हुआ – ऐसे जो मोहादिक कर्म उनका सर्वथा नाश होने पर केवल आत्मा की सर्व प्रकार शुद्ध अवस्था का होना – वह मोक्ष है। उसका जो उपाय – कारण; उसे मोक्षमार्ग जानना।
वहाँ कारण तो अनेक प्रकार के होते हैं। कोई कारण तो ऐसे होते हैं जिनके हुए बिना तो कार्य नहीं होता, और जिनके होने पर कार्य हो या न भी हो। जैसे - मुनिलिंग धारण किये बिना तो मोक्ष नहीं होता। परन्तु मुनिलिंग धारण करने पर मोक्ष होता भी है
और नहीं भी होता। तथा कितने ही कारण ऐसे हैं कि मख्यत: तो जिनके होने पर कार्य होता है, परन्तु किसी के बिना हुए भी कार्यसिद्धि होती है। जैसे - अनशनादि बाह्यतपका साधन करने पर मुख्यतः मोक्ष प्राप्त करते हैं; परन्तु भरतादिकके बाह्यतप किये बिना ही मोक्षकी प्राप्ति हुई। तथा कितने ही कारण ऐसे हैं जिनके होने पर कार्यसिद्धि होती ही होती
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