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[ मोक्षमार्गप्रकाशक
करणानुयोगमें तो रागादि रहित शुद्धोपयोग यथाख्यातचारित्र होनेपर होता है, वह मोहके नाशसे स्वयमेव होगा; निचली अवस्थावाला शुद्धोपयोगका साधन कैसे करे? तथा द्रव्यानुयोगमें शुद्धोपयोग करने का ही मुख्य उपदेश है; इसलिये वहाँ छद्मस्थ जिस कालमें बुद्धिगोचर भक्ति आदि व हिंसा आदि कार्यरूप परिणामोंको छोड़कर आत्मानुभवनादि कार्योंमें प्रवर्ते उस काल उसे शुद्धोपयोगी कहते हैं । यद्यपि यहाँ केवलज्ञानगोचर सूक्ष्मरागादिक हैं, तथापि उसकी विवक्षा यहाँ नहीं की, अपनी बुद्धिगोचर रागादिक छोड़ता है, इस अपेक्षा उसे शुद्धोपयोगी कहा है।
इसी प्रकार स्व-पर श्रद्धानादिक होनेपर सम्यक्त्वादि कहे, वह बुद्धिगोचर अपेक्षासे निरूपण है; सूक्ष्म भावों की अपेक्षा गुणस्थानादिमें सम्यक्त्वादिका निरूपण करणानुयोगमें पाया जाता है। इसीप्रकार अन्यत्र जानना।
इसलिये द्रव्यानुयोगके कथनकी विधि करणानुयोगसे मिलाना चाहे तो कहीं तो मिलती है, कहीं नहीं मिलती। जिसप्रकार यथाख्यातचारित्र होने पर तो दोनो अपेक्षा शुद्धोपयोग है, परन्तु निचली दशामें द्रव्यानुयोग अपेक्षा से तो कदाचित् शुद्धोपयोग होता है, परन्तु करणानुयोग अपेक्षा से सदाकाल कषाय अंश के सद्भावसे शुद्धोपयोग नहीं है। इसी प्रकार अन्य कथन जान लेना ।
तथा द्रव्यानुयोगमें परमतमें कहे हुए तत्त्वादिकको असत्य बतलानेके अर्थ उनका निषेध करते हैं; वहाँ द्वेषबुद्धि नहीं जानना । उनको असत्य बतलाकर सत्य श्रद्धान करानेका प्रयोजन जानना।
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इसीप्रकार और भी अनेक प्रकारके द्रव्यानुयोगमें व्याख्यानका विधान है।
इसप्रकार चारों अनुयोगके व्याख्यान का विधान कहा। वहाँ किसी ग्रन्थमें एक अनुयोगकी, किसी में दो की, किसीमें तीन की और किसी में चारोंकी प्रधानता सहित व्याख्यान होता है; सो जहाँ जैसा सम्भव हो वहाँ वैसा समझ लेना।
अनुयोगोंके व्याख्यानकी पद्धति
अब, इन अनुयोगोंमें कैसी पद्धतिकी मुख्यता पायी जाती है सो कहते हैं :
प्रथमानुयोगमें तो अलंकार शास्त्र की व काव्यादि शास्त्रोंकि पद्धति मुख्य है; क्योंकि अलंकारादिसे मन रंजायमान होता है, सीधी बात कहनेसे ऐसा उपयोग नहीं लगता जैसा अलंकारादि युक्त सहित कथनसे उपयोग लगता है। तथा परोक्ष बातको कुछ अधिकतापूर्वक निरूपण किया जाये तो उसका स्वरूप भली-भांति भासित होता है।
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