Book Title: Moksh marg prakashak
Author(s): Todarmal Pandit
Publisher: Kundkund Kahan Digambar Jain Trust

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Page 298
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २५४] [ मोक्षमार्गप्रकाशक नरकादि प्राप्त करेगा। इसलिये ऐसा करना तो निर्विचारीपना है। तथा व्रतादिकरूप परिणतिको मिटाकर केवल वीतराग उदासीनभावरूप होना बने तो अच्छा ही है; वह निचली दशामें हो नहीं सकता; इसलिये व्रतादि साधन छोड़कर स्वच्छन्द होना योग्य नहीं है। इसप्रकार श्रद्धानमें निश्चयको, प्रवृत्तिमें व्यवहारको उपादेय मानना वह भी मिथ्या भाव ही है। तथा यह जीव दोनों नयोंका अंगीकार करनेके अर्थ कदाचित् अपनेको शुद्ध सिद्ध समान रागादि रहित केवलज्ञानादि सहित आत्मा अनुभवता है, ध्यानमुद्रा धारण करके ऐसे विचारोंमें लगता है; सो ऐसा आप नहीं है, परन्तु भ्रमसे 'निश्चयसे मैं ऐसा ही हूँ' ऐसा मानकर सन्तुष्ट होता है। तथा कदाचित् वचन द्वारा निरूपण ऐसा ही करता है। परन्तु निश्चय तो यथावत् वस्तुको प्ररूपित करता है। प्रत्यक्ष आप जैसा नहीं है वैसा अपनेको माने तो निश्चय नाम कैसे पाये? जैसा केवल निश्चयाभास वाले जीवके अयथार्थपना पहले कहा था उसी प्रकार इसके जानना। अथवा यह ऐसा मानता है कि इस नयसे आत्मा ऐसा है, इस नयसे ऐसा है। सो आत्मा तो जैसा है वैसा ही है; परन्तु उसमें नय द्वारा निरूपण करनेका जो अभिप्राय है उसे नहीं पहिचानता। जैसे - आत्मा निश्चयसे तो सिद्धसमान केवलज्ञानादिसहित, द्रव्यकर्मनोकर्म-भावकर्म रहित है. और व्यवहारनयसे संसारी मतिज्ञानादि सहित तथा द्रव्यकर्मनोकर्म-भावकर्म सहित है - ऐसा मानता है; सो एक आत्माके ऐसे दो स्वरूप तो होते नहीं है; जिस भावहीका सहितपना उस भावहीका रहितपना एक वस्तुमें कैसे सम्भव हो ? इसलिये ऐसा मानना भ्रम है। तो किस प्रकार है ? जैसे - राजा और रंक मनुष्यपनेकी अपेक्षा समान हैं; उसी प्रकार सिद्ध और संसारी को जीवत्वपनेकी अपेक्षा समान कहा है। केवलज्ञानादिकी अपेक्षा समानता मानी जाय, सो तो है नहीं; संसारीके निश्चयसे मतिज्ञानादिक ही हैं, सिद्धके केवलज्ञान है। इतना विशेष है कि संसारीके मतिज्ञानादिक कर्मके निमित्तसे हैं इसलिये स्वभाव अपेक्षा संसारीमें केवलज्ञानकी शक्ति कही जाये तो दोष नहीं है। जैसे - रंक मनुष्यमें राजा होनेकी शक्ति पाई जाती है, उसी प्रकार यह शक्ति जानना। तथा द्रव्यकर्मनोकर्म पुद्गलसे उत्पन्न हुए हैं, इसलिये निश्चयसे संसारीके भी इनका भिन्नपना है, परन्तु सिद्धकी भाँति इनका कारणकार्य अपेक्षा सम्बन्ध भी न माने तो भ्रम ही है। तथा भावकर्म आत्माका भाव है सो निश्चयसे आत्माहीका है, परन्तु कर्मके निमित्तसे होता है, इसलिये व्यवहारसे कर्मका कहा जाता है। तथा सिद्धकी भाँति संसारीके भी रागादिक न मानना. उन्हें कर्महीका मानना वह भी भ्रम है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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