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[मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा कितने ही इस लोकमें दुःख सहन न होनेसे व परलोकमें इष्टकी इच्छा व अपनी पूजा बढ़ानेके अर्थ व किसी क्रोधादिकसे आपघात करते हैं। जैसे – पतिवियोगसे अग्निमें जलकर सती कहलाती है, व हिमालयमें गलते हैं, काशीमें करौंत लेते हैं, जीवित मरण लेते हैं – इत्यादि कार्योंसे धर्म मानते हैं; परन्तु आपघातका तो महान पाप है। यदि शरीरादिकसे अनुराग घटा था तो तपश्चरणादि करना था, मर जानेमें कौन धर्मका अंग हुआ ? इसलिये आपघात करना कुधर्म है।
इसी प्रकार अन्य भी बहुतसे कुधर्मके अंग हैं। कहाँ तक कहें, जहाँ विषय-कषाय बढ़ते हों और धर्म मानें सो सब कुधर्म जानना।
देखो, कालका दोष, जैनधर्ममें भी कुधर्मकी प्रवृत्ति हो गयी है। जैनमतमें जो धर्मपर्व कहे हैं वहाँ तो विषय-कषाय छोड़कर संयमरूप प्रवर्तना योग्य है। उसे तो ग्रहण नहीं करते और व्रतादिकका नाम धारण करके वहाँ नाना श्रृंगार बनाते हैं, इष्ट भोजनादि करते हैं, कुतूहलादि करते हैं व कषाय बढ़ानेके कार्य करते हैं, जुआ इत्यादि महान पापरूप प्रवर्तते हैं।
तथा पूजनादि कार्यों में उपदेश तो यह था कि – “सावद्यलेशो बहूपुण्यराशौ दोषायनालं'" बहुत पुण्यसमूहमें पापका अंश दोषके अर्थ नहीं है। इस छल द्वारा पूजाप्रभावनादि कार्योंमें - रात्रिमें दीपकसे , व अनन्तकायादिकके संग्रह द्वारा, व अयत्नाचार प्रवृत्तिसे हिंसादिरूप पाप तो बहुत उत्पन्न करते हैं और स्तुति , भक्ति आदि शुभपरिणामोंमें नहीं प्रवर्तते व थोड़े प्रवर्तते हैं; सो वहाँ नुकसान बहुत, नफा थोड़ा या कुछ नहीं। ऐसे कार्य करनेमें तो बुरा ही दिखना होता है।
तथा जिनमन्दिर तो धर्मका ठिकाना है। वहाँ नाना कुकथा करना, सोना इत्यादि प्रमादरूप प्रवर्तते हैं; तथा वहाँ बाग-बाड़ी इत्यादि बनाकर विषय-कषायका पोषण करते हैं। तथा लोभी पुरुषको गुरु मानकर दानादिक देते हैं व उनकी असत्य स्तुति करके महंतपना मानते हैं। - इत्यादि प्रकारसे विषय-कषायोंको तो बढ़ाते हैं और धर्म मानते हैं; परन्तु जिनधर्म तो वितरागभावरूप है, उसमें ऐसी विपरीत प्रवृत्ति कालदोषसे ही देखी जाती है।
इस प्रकार कुधर्मसेवनका निषेध किया।
पूज्यं जिनं त्वार्चयतोजनस्य, सावद्यलेशोबहुपुण्यराशौ। दोषायनालं कणिका विषस्य, न दूषिका शीतशिवाम्बुराशौ।। ५८ ।। (बृहत् स्वयंभूस्तोत्र)
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