Book Title: Moksh marg prakashak
Author(s): Todarmal Pandit
Publisher: Kundkund Kahan Digambar Jain Trust

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Page 323
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [ २७९ आठवाँ अधिकार ] तथा निश्चयसहित व्यवहारके उपदेशमें परिणामोंकी ही प्रधानता है; उसके उपदेशसे तत्त्वज्ञान के अभ्यास द्वारा व वैराग्य भावना द्वारा परिणाम सुधारे वहाँ परिणामके अनुसार बाह्यक्रिया भी सुधर जाती है। परिणाम सुधरने पर बाह्यक्रिया सुधरती ही है; इसलिये श्रीगुरु परिणाम सुधारने का मुख्य उपदेश देते हैं। इसप्रकार दो प्रकार के उपदेशमें जहाँ व्यवहार का ही उपदेश हो वहाँ सम्यग्दर्शन के अर्थ अरहन्तदेव, निर्ग्रन्थ गुरु, दया - धर्मको ही मानना, और को नहीं मानना; तथा जीवादिक तत्त्वोंका व्यवहार स्वरूप कहा है उसका श्रद्धान करना; शंकादि पच्चीस दोष न लगाना; निःशंकितादि अंग व संवेगादिक गुणोंका पालन करना इत्यादि उपदेश देते हैं। तथा सम्यक्ज्ञानके अर्थ जिनमतके शास्त्रोंका अभ्यास करना, अर्थ व्यंजनादि अंगोंका साधन करना इत्यादि उपदेश देते हैं । तथा सम्यक्चारित्रके अर्थ एक देश व सर्वदेश हिंसादि पापोंका त्याग करना, व्रतादि अंगोंका पालन करना इत्यादि उपदेश देते हैं। तथा किसी जीव के विशेष धर्मका साधन न होता जान कर एक आखड़ी आदिकका ही उपदेश देते हैं। जैसे भीलको कौएका माँस छुड़वाया, ग्वालेको नमस्कारमन्त्र जपनेका उपदेश दिया, गृहस्थको चैत्यालय, पूजा - प्रभावनादि कार्यका उपदेश देते हैं, इत्यादि जैसा जीव हो उसे वैसा उपदेश देते हैं । - - तथा जहाँ निश्चयसहित व्यवहार का उपदेश हो वहाँ सम्यग्दर्शनके अर्थ यथार्थ तत्त्वोंका श्रद्धान कराते हैं। उनका जो निश्चयस्वरूप है सो भूतार्थ है, व्यवहारस्वरूप है सो उपचार है ऐसे श्रद्धानसहित व स्वपरके भेदज्ञान द्वारा परद्रव्यमें रागादि छोड़ने के प्रयोजनसहित उन तत्त्वोंका श्रद्धान करनेका उपदेश देते हैं। ऐसे श्रद्धानसे अरहन्तादिके सिवा अन्य देवादिक झूठ भासित हो तब स्वयमेव उनका मानना छूट जाता है, उसका भी निरूपण करते हैं। तथा सम्यग्ज्ञान के अर्थ संशयादिरहित उन्हीं तत्त्वोंको उसी प्रकार जानने का उपदेश देते हैं, उस जाननेको कारण जिनशास्त्रोंका अभ्यास है, इसलिये उस प्रयोजन के अर्थ जिनशास्त्रोंका भी अभ्यास स्वयमेव होता है; उसका निरूपण करते हैं। तथा सम्यक्चारित्रके अर्थ रागादि दूर करनेका उपदेश देते हैं; वहाँ एकदेश व सर्वदेश तीव्ररागादिकका अभाव होने पर उनके निमित्तसे जो एकदेश व सर्वदेश पापक्रिया होती थी वह छूटती है, तथा मंदरागसे श्रावक - मुनि के व्रतोंकी प्रवृत्ति होती है और मंद रागका भी अभाव होनेपर शुद्धोपयोग की प्रवृत्ति होती है, उसका निरूपण करते हैं। तथा यथार्थ श्रद्धान सहित सम्यग्दृष्टियोंके जैसे कोई यथार्थ आखड़ी होती है या भक्ति होती है या पूजा - प्रभावनादि कार्य होते हैं या ध्यानादिक होते हैं उनका उपदेश देते हैं। जिनमतमें जैसा सच्चा परम्परामार्ग है वैसा उपदेश देते हैं। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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