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नौवाँ अधिकार]
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इसप्रकार सम्यक्त्व का लक्षणनिर्देश किया।
यहाँ प्रश्न है कि सच्चा तत्त्वार्थश्रद्धान व आपापर का श्रद्धान व आत्मश्रद्धान व देवगुरु-धर्मका श्रद्धान सम्यक्त्व का लक्षण कहा। तथा इन सर्व लक्षणोंकि परस्पर एकता भी दिखायी सो जानी; परन्तु अन्य-अन्य प्रकार लक्षण कहने का प्रयोजन क्या ?
उत्तर :- यह चार लक्षण कहे, उनमें सच्ची दृष्टिसे एक लक्षण ग्रहण करने पर चारों लक्षणोंका ग्रहण होता है। तथापि मुख्य प्रयोजन भिन्न-भिन्न विचारकर अन्य-अन्य प्रकार लक्षण कहे हैं।
जहाँ तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षण कहा है, वहाँ तो यह प्रयोजन है कि इन तत्त्वोंको पहिचानेतो यथार्थ वस्तुके स्वरूपका व अपने हित-अहित का श्रद्धान करे तब मोक्षमार्गमें प्रवर्ते।
तथा जहाँ आपापरका भिन्न श्रद्धान लक्षण कहा है, वहाँ तत्त्वार्थश्रद्धानका प्रयोजन जिससे सिद्ध हो उस श्रद्धान को मुख्य लक्षण कहा है। जीव-अजीवके श्रद्धान का प्रयोजन
का भिन्न श्रद्धान करना है। तथा आस्रवादिकके श्रद्धानका प्रयोजन रागादिक छोड़ना है, सो आपापर का भिन्न श्रद्धान होनेपर परद्रव्यमें रागादि न करने का श्रद्धान होता है। इस प्रकार तत्त्वार्थश्रद्धानका प्रयोजन आपापर के भिन्न श्रद्धानसे सिद्ध होता जानकर इस लक्षण को कहा है।
तथा जहाँ आत्मश्रद्धान लक्षण कहा है, वहाँ आपापरके भिन्न श्रद्धानका प्रयोजन इतना ही है कि - आपको आप जानना। आपको आप जाननेपर पर का भी विकल्प कार्यकारी नहीं है। ऐसे मूलभूत प्रयोजनकी प्रधानता जानकर आत्मश्रद्धानको मुख्य लक्षण कहा है।
तथा जहाँ देव-गुरु-धर्मका श्रद्धान लक्षण कहा है, वहाँ बाह्य साधन की प्रधानता की है; क्योंकि अरहन्तदेवादिकका श्रद्धान सच्चे तत्त्वार्थश्रद्धानका कारण है और कुदेवादिकका श्रद्धान कल्पित तत्त्वश्रद्धानका कारण है। सो बाह्य कारण कि प्रधानता से कुदेवादिकका श्रद्धान छुड़ाकर सुदेवादिकका श्रद्धान कराने के अर्थ देव-गुरु-धर्मके श्रद्धान को मुख्य लक्षण कहा है।
इसप्रकार भिन्न-भिन्न प्रयोजनोंकी मुख्यता से भिन्न-भिन्न लक्षण कहे हैं।
यहाँ प्रश्न है कि यह चार लक्षण कहे, उनमें यह जीव किस लक्षणको अंगीकार करे?
___ समाधान :- मिथ्यात्वकर्मके उपशमादि होनेपर विपरीताभिनिवेशका अभाव होता है; वहाँ चारों लक्षण युगपत् पाये जाते हैं। तथा विचार अपेक्षा मुख्यरूपसे तत्त्वार्थोंका विचार करता है, या आपापरका भेदविज्ञान करता है, या आत्मस्वरूपही का स्मरण करता है, या देवादिकका स्वरूप विचारता है। इसप्रकार ज्ञानमें तो नानाप्रकार विचार होते हैं, परन्तु
में सर्वत्र परस्पर सापेक्षपना पाया जाता है। तत्त्वविचार करता है तो भेदविज्ञानादिके
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