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पाँचवा अधिकार ]
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तृष्णादि रहित, ध्यानमुद्राधारी, सर्वाश्रम द्वारा पूजित कहा है; उनके अनुसार अर्हत राजाने प्रवृत्ति की ऐसा कहते हैं । सो जिस प्रकार राम - कृष्णादि अवतारोंके अनुसार अन्यमत हैं। उसी प्रकार ऋषभावतारके अनुसार जैनमत है, इस प्रकार तुम्हारे मत ही द्वारा जैनमत प्रमाण हुआ ।
यहाँ इतना विचार और करना चाहिये
कृष्णादि अवतारों के अनुसार विषयकषायों की प्रवृत्ति होती है; ऋषभावतारके अनुसार वीतराग साम्यभावकी प्रवृत्ति होती है। यहाँ दोनो प्रवृत्तियोंको समान मानने से धर्म-अधर्मका विशेष नहीं रहेगा और विशेष मानने से जो भली हो वो अंगीकार करना ।
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तथा 'दशावतार चरित्र” में - " बद्धवापद्मासनं यो नयनयुगमिदं न्यस्य नासाग्रदेशे ' इत्यादि बुद्धावतारका स्वरूप अरहंतदेव समान लिखा है, सो ऐसा स्वरूप पूज्य है तो अरहंतदेव पूज्य सहज ही हुए ।
तथा “ काशीखंड” में देवदास राजाको सम्बोधकर राज्य छुड़ाया; वहाँ नारायण तो विनयकीर्ति यति हुआ, लक्ष्मीको विनयश्री आर्यिकाकी, गरुड़को श्रावक किया ऐसा कथन है । सो जहाँ सम्बोधन करना हुआ वहाँ जैनी भेष बनाया; इसलिए जैन हितकारी प्राचीन प्रतिभासित होते हैं ।
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तथा प्रभास पुराण" में ऐसा कहा है :
तथा “
भवस्य पश्चिमे भागे वामनेन तपः कृतम्।
तेनैव तपसाकृष्टः शिवः प्रत्यक्षतां गतः ।। १ ।। पद्मासनमासीनः श्याममूर्तिर्दिगम्बरः । नेमिनाथः शिवेत्येवं नाम चक्रेअस्य वामनः ।। २ ।। कलिकाले महाघोरे सर्व पापप्रणाशकः । दर्शनात्स्पर्शनादेव कोटियज्ञफलप्रदः ।। ३ ।।
यहाँ वामन को पद्मासन दिगम्बर नेमिनाथका दर्शन हुआ कहा है; उसीका नाम शिव कहा है। तथा उसके दर्शनादिकसे कोटियज्ञका फल कहा है सो ऐसा नेमिनाथका स्वरूप तो जैनी प्रत्यक्ष मानते हैं; सो प्रमाण ठहरा।
प्रभास पुराण" में कहा है :
रैवताद्रौ जिनो नेमिर्युगादिर्विमलाचले । ऋषीणामाश्रमादेव मुक्तिमार्गस्य कारणम् ।। १
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यहाँ नेमिनाथको जिनसंज्ञा कही, उनके स्थानको ऋषिका आश्रम मुक्तिका कारण कहा और युगादिके स्थानको भी ऐसा ही कहा; इसलिये उत्तम पूज्य ठहरे।
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