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दूसरा अधिकार ]
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तथा चार अघातिया कर्म है, उनके निमित्तसे इस आत्माको बाह्य सामग्रीका संबन्ध बनता है। वहाँ वेदनीयसे तो शरीरमें अथवा शरीरसे बाह्य नानाप्रकार सुख-दुःखके कारण परद्रव्योंका संयोग जुड़ता है; आयुसे अपनी स्थिति पर्यन्त प्राप्त शरीरका सम्बन्ध नही छूट सकता; नाम से गति, जाति, शरीरादिक उत्पन्न होते हैं; और गोत्र से उच्च-नीच कुल की प्राप्ति होती है।
इस प्रकार अघाति कर्मोंसे बाह्य सामग्री एकत्रित होती है, उसके द्वारा मोह-उदयका सहकार होनेपर जीव सुखी-दुःखी होता है। और शरीरादिक के सम्बन्धसे जीव के अमूर्त्तत्वादिस्वभाव अपने स्व-अर्थ को नहीं करते - जैसे कोई शरीरको पकड़े तो आत्मा भी पकड़ा जाये। तथा जब तक कर्म का उदय रहता है तबतक बाह्य सामग्री वैसे ही बनी रहे, अन्यथा नहीं हो सके - ऐसा इन अघाति कर्मोका निमित्त जानना।
निर्बल जड़कर्मों द्वारा जीव के स्वभावका घात तथा बाह्य सामग्री मिलना
यहाँ कोई प्रश्न करे कि - कर्म तो जड़ हैं, कुछ बलवान् नहीं हैं; उनसे जीवके स्वभाव का घात होना व बाह्य सामग्री का मिलना कैसे संभव है ?
समाधान :- यदि कर्म स्वयं कर्ता होकर उद्यमसे जीव के स्वभाव का घात करे, बाह्य सामग्रीको मिलावे तब तो कर्मके चेतनपना भी चाहिये और बलवानपना भी चाहिये; सो तो है नहीं, सहज ही निमित्त-नैमित्तिक संबन्ध है। जब उन कर्मोंका उदय काल हो; उस काल में स्वयं ही आत्मा स्वभावरूप परिणमन नहीं करता, विभावरूप परिणमन करता है, तथा जो अन्य द्रव्य हैं वे वैसे ही सम्बन्धरूप होकर परिणमित होते हैं।
जैसे – किसी पुरुषके सिर पर मोहनधूल पड़ी है उससे वह पुरुष पागल हुआ; वहाँ उस मोहनधूल को ज्ञान भी नहीं था और बलवानपना भी नहीं था, परन्तु पागलपना उस मोहनधल ही से हआ देखते हैं। वहाँ मोहनधूल का तो निमित्त है और पुरुष स्वयं ही पागल हुआ परिणमित होता है - ऐसा ही निमित्त-नैमित्तिक बन रहा है।
तथा जिस प्रकार सूर्य के उदय के काल में चकवा-चकवियोंका संयोग होता है; वहाँ रात्रि में किसी ने द्वेषबुद्धिसे बलजबरी करके अलग नहीं किये हैं, दिन में किसी ने करुणाबुद्धिसे लाकर मिलाये नहीं हैं, सूर्योदयका निमित्त पाकर स्वयं ही मिलते हैं। ऐसा ही निमित्त-नैमित्तिक बन रहा है। उस ही प्रकार कर्म का भी निमित्त-नैमित्तिक भाव जानना। - इस प्रकार कर्म के उदय से अवस्था है।
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